मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

आम आदमी की आखिरी आस को बचाना होगा

सत्यजीत चौधरी

       कभी किसी दिलजले ने कचहरी के बारे में झुंझलाकर कहा था-'वहां खंभे से कान लगाओ तो वह भी पैसे मांगता है " यह वकीलों, उनके मुंशियों, अहलकारों, पेशकारों वगैरह के बारे में कहा गया जुमला था। पैसों का घुन कब वकीलों के बस्तों और पेशकारों की मुट्ठियों से होता हुआ न्याय के मंदिर तक जा पहुंचा, पता ही नहीं चला। इलाहाबाद हाईकोर्ट और उसकी लखनऊ बेंच के बारे में सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी सकते में डालती है। यह पहला मौका नहीं है, जब उत्तर प्रदेश में न्याय पालिका संदेह के घेरे में आई है। इससे पहले, पीएफ घोटाले में भी कई जजों के दामन पर करप्शन के छींटे पड़ चुके हैं। कितनी बड़ी विडम्बना है कि सुप्रीम कोर्ट को अपनी निचली अदालत के बारे में कहना पड़ा कि वहां कुछ सड़ा हुआ है। जस्टिस मार्कन्डेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा की पीठ तो यहां तक कह गई कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय और उसकी लखनऊ बेंच की सफाई बेहद जरूरी हो गई है। न्यायालयों में घुसपैठ कर चुके भाई-भतीजावाद पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने यह भी कहा कि कुछ जजों के बारे में शिकायतें मिल रही हैं कि उनके बच्चे वकालत के पेशे में कदम रखने के कुछ ही समय बाद करोड़पति बन रहे हैं। ऐश-ओ-आराम से भरी उनकी जिंदगी, संघर्ष के साथ प्रैक्टिस कर रहे वकीलों को चिढ़ा रही है। जजों के बेटों और नाते-रिश्तेदारों की वकालत चमक रही है, उनके बैंक बैलेंस बढ़ रहे हैं, कोठियां आलीशान हो रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के दोनों जज यह याद दिलाना नहीं भूले कि यह वकालत की उच्च परंपरा के खिलाफ है। पहले, जजों के बच्चे अन्य युवा वकीलों के साथ बार में संघर्ष करते थे। अपने  जख्मों को रगडऩा मुश्किल होता है। सुप्रीम कोर्ट ने अगर यह उत्तर प्रदेश में न्याय के 'कारोबार पर सख्त टिप्पणी की है तो इसके लिए उसे साधुवाद दिया जाना चाहिए। भले ही भ्रष्टाचार के अंतरराष्ट्रीय इंडेक्स में भारत का स्थान ८७वां  हो, लेकिन करप्शन के नागपाश ने आम आदमी को बुरी तरह जकड़ रखा है। कोई भी शख्स खम ठोंककर नहीं कह सकता है कि वह जो रोटी खा रहा है, उसमें भ्रष्टाचार का अंश नहीं मिला है। इसके बारे में सोचकर एक बेतुका-सा ख्याल दिमाग में आता है-क्या हमारी अर्थ-व्यवस्था भ्रष्टाचार की पटरियों पर दौड़ रही है? बोफोर्स-सेंट किट्स से सुर्खियों में आए घोटाले चारा से स्पेक्ट्रम तक का सफर पूरा कर चुके हैं।  
         रोजाना ही नए-नए घपले-घोटाले उजागर हो रहे हैं और शायद ढेरों ऐसे ंहैं, जो कभी जनता के सामने आएंगे ही नहीं। आज हालत यह है कि बिना घूस कोई काम नहीं होता। ऐसे में एक मामूली आदमी की आखिरी आस न्याय का मंदिर माना जा रहा है, लेकिन देश के सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश की बड़ी अदालत के बारे में जो कुछ कहा है, वह हमारी संपूर्ण व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। क्या भ्रष्टाचार के पथ पर चलकर भारत महाशक्ति बनने का ख्वाब देख रहा है।
         यह पहला मौका नहीं है, जब देश की न्यायपालिक पर उंगली न उठी हो। कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पॉल डैनियल दिनाकरन पर पिछले दिनों गंभीर आरोप लगे। पूर्व विधि मंत्री राम जेठमलानी और बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस दिनाकरन की प्रोन्नति का यह कहते हुए विरोध किया कि वह भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। सिलसिला यहीं नहीं थमता। कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन भी महाभियोग के काबिल मान लिए गए हैं। उन पर दो गंभीर आरोप है। पहला, संपत्ति खड़ा करने का और उसके बारे में गलत सूचना देने का। भारत के इतिहास में यह पहला मौका होगा, जब किसी जज को महाभियोग का सामना करना पड़ा होगा।
         ऐसा नहीं है कि हाईकोर्ट के जजों के दामन पर भ्रष्टाचार के छींटे पड़े हों। पिछले दिनों कानून विद् एवं पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल दायर कर पूरे देश में सनसनी पैदा कर दी थी। इस याचिका में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों के कथित कच्चे चिट्ठों का जिक्र किया था, लेकिन नाम सिर्फ आठ न्यायधीशों के ही लिए थे। 
          न्यायपालिका सिर्फ इंसाफ मुहैया कराने की संस्था नहीं है। यह एक ऐसी ताकत है, जो सत्ता में मदहोश राजनेताओं पर कारगर अंकुश रखती है। भ्रष्ट अफसरशाही पर लगाम लगाती है। सामाजिक मूल्यों की रक्षा करती है। न्यायपालिका की साख और ताकत को भ्रष्टाचार के घुन से बचाने के लिए खुद उसे ही पहल करनी होगी। जजों की संपत्ति घोषित करने की मुहिम को तेज करना होगा। लोकतंत्र के इस पहरेदार की साख और ताकत को बचाना होगा।  उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जजों की एसोसिएशन ने न्यायपालिका की साख के लिए बार और बेंच को मिलकर काम करने की वकालत की है। 
          एसोसिएशन के सचिव एवं पूर्व जज अशोक कुमार श्रीवास्तव का मानना है कि न्यायपालिका में जो भी हो रहा है, वह गलत ढंग से की गई नियुक्तियों का नतीजा है। सेवानिवृत्त जज एसएचए रजा का मानना है कि नियुक्तियों और कदाचार की शिकायतों के लिए एक न्यायिक आयोग बनाकर जांच करानी चाहिए। न्यायमूर्ति अशोक कुमार श्रीवास्तव का मानना है कि नियुक्ति के मामले में पूर्व जज को भी विश्वास मेंं लिया जाना बेहद जरूरी है।

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