सत्यजीत चौधरी
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।
महान कवि जयशंकर प्रसाद के कालजयी महाकाव्य कामायनी के चिंता सर्ग की ये दो लाइनें पिछले साल भी दिमाग में कौंधी थीं, जब जल प्रलय ने उत्तराखंड के एक बड़े हिस्से को झिंझोड कर मलबे में तब्दील कर दिया था। इस साल जब केदारनाथ की वाॢषक यात्रा शुरू हुई तो मेरे अंदर बैठा मनु (कामायनी का मुख्य चरित्र) बेचैन हो उठा। चल पड़ा हिमगिरि के उत्तुंग शिखर की तरफ, ताकि देख सके कि प्रकृति द्वारा लहूलुहान पुरुष अपने जख्मों को कितना भर पाया है। ढेरों सवाल थे। बाबा केदारनाथ की नगरी तक जाने वाले वे रास्ते और पुल क्या फिर बन पाए, जिन्हें बाढ़ बहा ले गई थी? वैकल्पिक पैदल मार्ग कैसा है और उसपर कैसी सुविधाएं हैं? जिन धर्मशालाओं और गेस्ट हाउसों को बाढ़ बहा ले गई थी, क्या वे फिर से आबाद हो पाए हैं? क्या तीर्थयात्रियों की ठहरने, खाने—पीने और स्वास्थ्य सेवा फिर से बहाल हो पाई है?एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।