शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

हिमालय की संतानों की सुध कौन लेगा !!!

सत्यजीत चौधरी 
सीना ताने खड़े पहाड़ मनुष्य को धैर्य, शक्ति, जीवटता, अभिमान और स्थायित्व जैसे जीवन तत्वों का साक्षात्कार कराते हैं। विश्वविख्यात रूसी पर्वतारोही एनातोली बोखीरीव की डायरी के एक पन्ने पर दर्ज है, पहाड़ कोई स्टेडियम नहीं है, जहां मैं अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करूं। पहाड़ तो गिरजाघर हैं, जहां मैं अपने धर्म के कर्म को पूरा करता हूं। वाकई इन पूजनीय पहाड़ों को हमने अपनी लालच, महात्वाकांक्षाओ और आर्थिक विकास का स्टेडियम बना दिया है। पहाड़ों के सीने से हरियाली नोच—नोचकर हम उसमें कंक्रीट भरते जा रहे हैं। नतीजा उत्तराखंड के रूप में हमारे सामने है।
     वैसे देखा जाए तो आपदा उत्तराखंड के लिए कोई नई बात नहीं है। आकस्मिक बाढ़, भू—स्खलन, बादल फटना इस राज्य के लिए मातम का वार्षिक आयोजन है। इस बार यह नोटिस इस लिए किया गया कि आपदा का दायरा काफी बड़ा था। नाराज कुदरत ने गढ़वाल में जमकर तबाही मचाई और इसकी चपेट में स्थानीय लोगों के साथ कोई पौना लाख बाहरी तीर्थ यात्री और सैलानी भी आ गए, जिनको यह आशंका कतई नहीं थी कि समय से काफी पहले इतने खतरनाक अंदाज में मानसून दस्तक देगा। 
बहरहाल अब जबकि सेना और अद्धसैनिक बलों के कई करोड़ सेल्यूट लायक हौसले से अधिसंख्य बाहरी लोगों को आपदाग्रस्त इलाकों से निकाला जा चुका है, कई सवाल अब चिल्ला रहे हैं। गढ़वाल में आपदाग्रस्त इलाकों में बोल्डरों, बालू, मिट्टी, कीचड़ और पानी से घुटी हुई चीखें निकल रही हैं। अपने लोगों को निकाल कर ले जाने का दावा करने वाली गुजरात, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों की सरकारें पराई थी, लेकिन उत्तराखंड के लोगों को तो अपने ने ही दगी दी। गढ़वाल में यहां—वहां से फूट रहा विलाप राज्य सरकार ही नहीं सुन रही है। केंद्र में भी कांग्रेस की सरकार है, जिसे दम पर चला रहा रेस्क्यू ऑपरेशन सिर्फ बाहरी लोगों के लिए है। क्या दुर्गम पहाड़ी इलाकों में भूख—प्यास से तड़प रहे लोग इंसान नहीं हैं। अब तक केंद्र और राज्य सरकार के साथ टीआरपी की जद्दोजहद से जूझ रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सारा जोर बाहर के लोगों पर रहा है। देश के विभिन्न राज्यों के लोगों से फोनो हो रहे हैं। एक-आध न्यूज चैनल को छोडक़र ज्यादातर की फोकस लाइन बाहर से आए तीर्थयात्री और देशी—विदेशी सैलानी ही हैं। बाढ़ ने जितना कहर बाहर के लोगों पर ढाया है, उससे कहीं अधिक मुकामी लोगों को हलकान किया है। गांव के गांव बह गए। प्रशासन ने अब तक इन बदहाल लोगों तक पहुंचने की कोई योजना नहीं बनाई है। लोग, मकान, मवेशी, खेती, काम—धंधे सब बाढ़ पानी बहा ले गया। गढ़वाल के पहाड़ी इलाकों में लोग मकान को मुआसी कहते हैं। पहाड़ पर एक मुआसी बनाने का मतलब है पहाड़ सा जिगरा होना। वैसे तो पर्वतीय इलाकों में भवन निर्माण में पत्थर का इस्तेमाल अधिक होता है, लेकिन हाल के कुछ सालों में कंक्रीट का इस्तेमाल बढ़ा है। कोई स्पष्ट आंकड़ा तो अभी नहीं है, लेकिन हजारों कच्चे—पक्के आशियाने बाढ़ बहा ले गई। किसी पहाड़ी से पूछें कैसे बनता है मकान। जो ईंट मैदानी इलाकों में चार से पांच रुपए में मिल जाती है, पहाड़ों पर उसके लिए तिगुना खर्च करना पड़ता है। सीमेंट भी महंगी है। वैसे भी कोई पक्का मकान वहां एक दिन में नहीं खड़ा हो जाता है। कई बार तो दो या तीन पुश्तों का साझा कार्यक्रम होता है एक मकान। सरकार ने तो बाढ़ से बर्बाद लोगों को सत्ताइस सौ का चेक थमाकर इतिश्री मान ली। इस रकम का वह क्या करें। बह गए अपने सीढ़ीदार खेत बनाएं, मकान फिर से खड़ा करें। बहाव के साथ जाने कहां लुप्त हो गई अपनी दुकान तलाशें या पेट में नरक की आग की तरह धधक रही भूख को शांत करें। खबरें आ रही हैं कि केदारनाथ और बदरीनाथ के अलावा हेमकुंट साहिब की यात्रा को बहाल होने में एक से दो साल लग जाएंगे। बचे—खुचे पिट्ठू और कुली तब तक क्या खाएं, अपने खच्चरों को क्या खिलाएं। यही नहीं, स्थानीय नागरिक भी भूखों मर रहे हैं। जिस समय उत्तराखंड के कुछ इलाकों से तीर्थ यात्रियों के साथ लूटपाट की खबरें आ रही थीं, उसी वक्त सचाई यह थी कि मुकामी लोग अपना संचित राशन तीर्थयात्रियों को खिला रहे थे। अब उनकी खाली थाली की तरफ झांकने वाला कोई नहीं।
    दरअसल केंद्र और राज्य की सरकारें जानती हैं कि ये गढ़वाली हैं। नंगे पहाड़ और अंधाधुंध विकास से पैदा होने वाली सालाना कुदरती आफत के आदी हैं, लेकिन इस बार पहाड़ सा हौसला रखने वाले इन गढ़वालियों के पास न हिम्मत बची है और न सरमाया। अब देखना यह है कि केंद्र सरकार और उसके विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकारों से घोषित आर्थिक पैकेज और मदद से कितना पुनर्निर्माण होता है और कितने का बंदरबांट। इस आफत ने गढ़वाल के बड़े हिस्से के लोगों को वाकई में कंगाल बना दिया है और अगर जल्द ही उनकी सुध नहीं ली गई तो लोग अवसाद से घिर जाएंगे। सरकार को ऐसा मैकेनिज्म बनाना होगा, जिससे लोगों को फिर से खड़ा होने में मदद मिले और भ्रष्टाचार की घुन आर्थिक मदद को चट न कर जाए।

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