मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

उम्मीदों के मुख्यमंत्री !

सत्यजीत चौधरी  
  पहाड़ की तुलना धैर्य से की जाती है। अडिग—अविचल खड़ा पहाड़ जाने क्या—क्या झेलता है। मौसम की मार, खनन के हथोड़े, हिमपात, बरसात, भूस्खलन....@...लेकिन एक वक्त ऎसा भी आता है, जब पहाड़ का सब्र टूट जाता है। उत्तराखंड में बदरीनाथ में प्रकृति का तांडव हुआ, उसकी भयानक अनुगूंज राजनीतिक गलियारों में भी सुनाई दी। जब इस गूंज को अनसुना कर दिया गया तो विजय बहुगुणा की कुर्सी चली गई और हरीश रावत को मुख्यमंत्री का पद मिल गया।
     कुमाऊं और गढ़वाल के खांचों में बंटे तेरह साल पुराने इस राज्य में गुटबाजी हमेशा हावी रही। कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा की, खेमेबंदी से नहीं उबर पाईं। दोनों ही दलों की सरकार में मुख्यमंत्री को बदलकर हालात बदलने की जुगत को ही निदान मान लिया गया। मर्ज की असली वजह पहचनने की कोशिश नहीं हुई। तेरह—सवा तेरह साल की इस सरकार की कमान संभालने जा रहे हरीश रावत गुटबाजी पर नियंत्रण पाकर कैसे अपनी सरकार बचा पाएंगे, यह वक्त ही बता पाएगा।

      उत्तराखंड के साथ यह विडंबना रही कि यहां हमेशा राष्ट्रीय राजनैतिक दलों का ही वर्चस्व रहने के बावजूद कभी सशक्त नेतृत्व विकसित नहीं हो पाया। दो दलों में सरकार के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति की ऊर्जा खेमों को खुश रखने में बरबाद होती रही और जनता परेशानियों से जूझती रही। कांग्रेस और भाजपा हाईकमान ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की गई कि राज्य की जनता की उम्मीदों के पैमाने पर दिल्ली से पैराशूट के जरिये उतारा गया मुख्यमंत्री खरा उतर भी रहा है या नहीं। दोनों ही पाॢटयों पर यह तथ्य समान रूप से लागू होता है और उत्तराखंड की पैदाइश के वक्त से ही।
     बात चाहे राज्य की पहली अंतरिम सरकार के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी की हो, पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी या अगली दो निर्वाचित विधानसभाआें के मुख्यमंत्रियों भुवन चंद्र खंडूड़ी और विजय बहुगुणा की। हर बार आलाकमान ने विधायकों में से सर्वसम्मत नेता चुनने की बजाए ऊपर से नेतृत्व थोपने का शार्टकट अपनाया।
नतीजा यह रहा कि पिछले सवा तेरह सालों से उत्तराखंड सियासी अस्थिरता के भंवर में डूब—उतरा रहा। स्थिति यह रही कि इनमें से केवल एनडी तिवारी को छोड़ दिया जाए तो कोई भी मुख्यमंत्री अपना आधा कार्यकाल पूर्ण नहीं कर पाया। तिवारी पांच साल तक कैसे सरकार की लढिय़ा खींच पाए, इसमें किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। सबको साधने और हाईकमान को खुश रखने की कला से उन्हें सियासी स्पेस मिलता चला गया। अनुभव भी काम आया। जहां तक विजय बहुगुणा का सवाल है, वह कुछ-कुछ मायावती स्टाइल में सरकार चलाने की कोशिश कर रहे थे। अफसरों को झाड़ पिलाना, मीडिया को जूते की नोक पर रखना और प्राकृतिक आपदा से पस्तहाल राज्य की जनता परेशानियों से खुद को दूर रखना उनकी आदत बन चुकी थी। उनकी शिकायतें लगातार कांग्रेस हाईकमान के कानों तक पहुंच रही थीं।
वैसे देखा जाए तो उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन कांग्रेस की चुनावी तैयारी का ही एक हिस्सा है। पार्टी हाईकमान को यह अहसास हो गया था कि राज्य में जिस तरह सिस्टम काम रहा है, उसमें लोकसभा चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे हाईकमान का मकसद गुटबाजी से तबाह उत्तराखंड कांग्रेस में संतुलन कायम करना था, लेकिन विजय के सत्ता संभालते ही गुटबाजी कई गुना और बढ़ गई। एक बार फिर साबित हुआ कि जमीनी राजनीति से दूर का कोई व्यक्ति न तो अच्छा प्रशासक साबित होता है न ही अच्छा नेता।  अब सवाल यह उठता है कि सिर से पानी काफी ऊपर हो जाने पर ही पार्टियां क्यों चेतती हैं। कर्नाटक में येदुयुरप्पा के खिलाफ लंबे समय से शिकायतें मिल रही थीं, लेकिन हाईकमान चुप्पी साधे बैठा रहा। हटाया जब जब काफी किरकिरी हो गई।
बहुगुणा जिस मामले में सबसे अधिक बदनाम हो रहे थे, वह था भीषण आपदा के शिकार लोगों को राहत पहुंचाने में नाकाम रहना और परेशान हाल लोगों की एक न सुनना। बचाव और राहत अभियान चलाने में बहुगुणा की ढिलाई की खुलकर चौतरफा आलोचना हो रही थी। आलाकमान उसी समय से उन्हें बदलने पर विचार करना चाहिए था। इसके अलावा बहुगुणा सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप भी लगे। उनसे क्षुब्ध विधायकों के एक वर्ग ने उन्हें हटाने का अभियान छेड़ रखा था। उनका प्रतिनिधिमंडल पिछले छह महीनों से लगातार पार्टी के केंद्रीय नेताओ से मिल रहा था। एेसे में आला कमान को काफी पहले उनको हटा देना चाहिए था।
    जहां तक नए मुख्यमंत्री की बात है, पिछले कुछ विधानसभा चुनावों के बाद हर बार उनका नाम मुख्यमंत्री के रूप में उछलता था, पर एेन मौके पर सीएम कोई और बन जाता था। इसकी मुख्य वजह विधायकों की गुटबाजी ही हुआ करती थी। लेकिन हरीश रावत ने हर बार शालीनता के साथ आलाकमान का फैसला मंजूर किया। इस बार भी उनका रास्ता रोकने की कोशिशें हुईं पर अच्छी बात है कि केंद्रीय नेतृत्व ने गुटबाजों के आगे झुकने से इनकार किया। हरीश रावत एक स्वच्छ छवि वाले गंभीर नेता हैं। केंद्रीय मंत्री के रूप में उनके कार्य की सराहना हुई है। यही नहीं, पार्टी प्रवक्ता के रूप में भी उन्होंने काफी संयम के साथ कांग्रेस का पक्ष रखा।
    सच कहा जाए तो अभी उत्तराखंड जिस मोड़ पर खड़ा है, उसमें राज्य को उनके जैसे वरिष्ठ, अनुभवी और सुलझे हुए नेता की जरूरत है। अभी जनता में प्रशासन के प्रति आक्रोश है, जिसका फायदा उठाने का कोई मौका अपोजीशन नहीं छोडऩे वाला। एेसे में बेहतर शाासन के साथ पार्टी को एकजुट रखने की चुनौती भी उनके सामने रहेगी। देखना है, हरीश रावत इसका सामना किस हद तक कर पाते हैं।
     नए मुख्यमंत्री हरीश रावत मॉडेस्ट बनने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। वह नहीं चाहते कि विजय बहुगुणा के कथित अवगुण की झलक लोगों को उनमें दिखाई दे। यही वजह है कि छह फरवरी को जब हरीश रावत सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिए पहली बार विधानसभा पहुंचे तो मुख्य प्रवेश द्वार पर ही अपने वाहन से नीचे उतर गये और लोकतंत्र के मंदिर विधानसभा भवन को श्रद्घा के साथ हाथ जोडक़र नमन किया। वास्तुशा में यकीन रखने वाले रावत मुख्यमंत्री की कुर्सी का स्थान और दिशा परिवर्तन भी करा दिया है। पूर्व मुख्यमंत्रियों रमेश पोखिरयाल निशंक, भुवन चंद्र खंडूरी और विजय बहुगुणा ने जिस जगह बैठकर सरकार चलाई, शायद उसमें वास्तु व दिशा दोष समझ में आ रहा था। नए मुख्यमंत्री की दिशा उत्तराभिमुख यानी उत्तर की तरफ उनका मुंह होगा। शुभ मुहूर्त को देखते हुए ही शाम को विधानसभा गए थे।  अब देखना है कि दिशाशूल से आक्रांत रावत अपनी सरकार की दिशा और दशा कैसे सुधारते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: