बुधवार, 23 नवंबर 2011

कृषि समस्याओं की अनदेखी

सत्यजीत चौधरी
"अक्सर किसानों को दिलासा के तौर पर उनका कर्ज तो माफ करा दिया जाता है, लेकिन कभी यह सोचने की जरूरत महसूस नहीं की जाती है कि किसान को इस कर्ज की आवश्यकता क्यों पड़ी? किसान कर्ज चुकाने में अक्सर नाकाम क्यों होता है?"
भारत की अर्थव्यवस्था खेतों में लहलहाती फसलों से इतनी मजबूत बन चुकी है कि अमेरिका या दूसरे देशों की आर्थिक मंदी भी इसका बाल बांका नहीं कर पाती है। लेकिन कृषि और किसानों को लेकर हमारे देश की सरकारों का रवैया गंभीर नहीं रहा है। यह दुखद है कि अर्थव्यवस्था के इतने बड़े क्षेत्र और इतनी बड़ी आबादी के हितों के मद्देनजर कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है। हालांकि वोट बैंक को बचाने के लिए सरकारों की ओर से औपचारिक प्रयास किए गए, लेकिन नतीजा आज तक शून्य ही दिखाई देता है। 2007 में कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में बने किसान आयोग की सिफारिशों पर एक राष्ट्रीय नीति बनी थी। इस नीति के तहत तैयार किया गया एक मसौदा भी उस समय की सरकार ने संसद में पेश किया था। खास बात यह है कि तत्कालीन संसद में वह मसौदा पास भी कर दिया गया था, लेकिन उसे लागू कभी नहीं किया जा सका। सवाल यह है कि संसद की मुहर लगने के बाद भी वह नीति क्यों नहीं क्रियान्वित की गई? यह सवाल खेतों में धूल फांकने वाले किसानों को तो जरूर सालता है, लेकिन उन नेताओं को इसकी सुधि नहीं आती, जो किसानों के वोट के आधार पर राजनीति करते हैं। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उस नीति की सुधि ली है। उसने चार साल पहले संसद से पारित होने के बावजूद राष्ट्रीय कृषि नीति लागू न होने पर केंद्र सरकार से जवाब-तलब किया।
दरअसल, दावे कुछ भी किए जाते रहे हों, हमारी सरकारों और नीति नियंताओं को यह जरूरी नहीं लगता कि किसानों के असल सवालों को प्राथमिकता दी जाए। वे कृषि की विकास दर को लेकर अलबत्ता चिंता जताते रहते हैं। मगर किसानों को उनकी उपज का न्यायसंगत मूल्य कैसे मिले, इस सवाल से वे कन्नी काट जाते हैं। अक्सर उपज की वाजिब कीमत न मिलने के कारण उसे नुकसान उठाना पड़ता है। किसानों को राहत देने के मकसद से फसली ऋण रियायती ब्याज पर मुहैया कराने की व्यवस्था की गई, लेकिन इसका एक बड़ा हिस्सा किसानों के बजाय दूसरों के खाते में जाता रहा है, जो दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे शहरों में कई कृषि प्रधान राज्यों से अधिक कृषि ऋ ण दिए जाने के आंकड़ों से जाहिर है। राष्ट्रीय किसान आयोग ने देश में खेती का स्तर बढ़ाने और किसानों को राहत पहुंचाने के मकसद से कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं।
जैसे, अनाज के भंडारण को विकेंद्रीकृत कर उसे सामुदायिक स्वरूप दिया जाना, खेती की ऐसी पद्धति को प्रोत्साहित किया जाना, जिसमें जमीन की उर्वरा शक्ति का क्षय न हो। इस प्रकार की सिफारिशों को लेकर भी अभी तक बहुत राहतजनक कदम नहीं उठ सका है।
आज खेती के सामने एक बड़ी चुनौती उसे पर्यावरण संरक्षण के अनुकूल बनाना भी है। कई दशकों से कृषि की ऐसी प्रणाली को बढ़ावा मिला है, जिसमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल होता है और पानी की ज्यादा जरूरत पड़ती है। इसके चलते जहां जमीन की उर्वराशक्ति क्षीण हो रही है, वहीं सिंचाई के लिए भूजल के अंधाधुंध दोहन से धरती के नीचे का जल भंडार खाली होता जा रहा है। खा की पोषक गुणवत्ता भी कम हो रही है। नकदी फ सलों के आकर्षण में कई तरह का असुंतलन भी पैदा हुआ है। मसलन, दाल की बुआई का रकबा सिकुड़ता गया है। इस तरह की विसंगतियों को दूर करने, खेती को किसानों के हित में बनाने के अलावा किसान आयोग ने कृषि को पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ बनाने की भी सिफ ारिश की थी। इन सुझवों को उस समय राष्ट्रीय कृषि नीति के मसौदे में शामिल भी कर लिया गया। सरकार बदलती गई और दूसरे मुद्दे हमेशा से ही सरकारों और उनके संचालकों पर हावी होते रहे। किसान आंदोलन करते रहे, कभी कृषि नीति को लेकर तो कभी किसानों की फसलों के मूल्यों को लेकर। आज भी गन्ने के दाम को लेकर हर साल बहस होती है। सरकारों की ओर से दिलासा देकर महज कुछ रुपये रेट बढ़ाकर तय कर दिया जाता है, लेकिन सरकार को इस बात की सुध नहीं आती कि एक अदद कृषि नीति होने पर किस कदर इस प्रकार की समस्याओं से निजात दिलाई जा सकती है। किसानों की मूलभूत समस्याओं को लेकर कभी मीडिया भी जहमत उठाने की कोशिश नहीं करता है। जो दिखता है, वही बिकता है की तर्ज पर काम करने वाले मीडिया की शुरुआत गांधी जी ने एक मिशन के रूप में की थी, लेकिन आज वही मिशन प्रोफेशन में तब्दील होता जा रहा है।
‘जय जवान, जय किसान’ का नारा आज भी हमारे कानों में गूंजकर उस दौर के नेताओं के कृषि प्रेम को जगाने की कोशिश तो जरूर करता है, लेकिन दूसरे क्षेत्रों और मतलबपरस्त राजनीति के चलते अब किसान भी असहाय दिखाई दे रहा है। हमेशा से ही किसानों को लेकर राजनीति चरम पर रही है।
फिर चाहे वह विदर्भ के किसान की आत्महत्या हो या फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की भूमि का अधिग्रहण। अक्सर किसानों को दिलासा के तौर पर कर्ज तो माफ करा दिया जाता है, लेकिन कभी यह सोचने की जरूरत महसूस नहीं की जाती है कि किसान को इस कर्ज की आवश्यकता क्यों पड़ी? किसान कर्ज चुकाने में अक्सर नाकाम क्यों होता है? सरकारों ने कभी इन सवालों को जवाब तलाशने का प्रयास नहीं किया है कि आखिर हमेशा देश की अर्थव्यवस्था को अपने पसीने से सींचने वाले किसान ही गलत रास्ता क्यों अख्तियार करते हैं? अपनी माटी से विशेष प्रेम कर अपना घर पालने के लिए संघर्ष करने वाले किसान को लेकर केंद्र सरकार ही नहीं, राज्य सरकारों की ओर से भी हमेशा से ही अस्पष्ट रुख देखने को मिलता आया है। फिर चाहे किसी किसानों के हितैषी माने जाने वाले नेता की सरकार हो या फिर किसी व्यापारिक प्रतिष्ठा वाले व्यापारी नेता की।
एक शिक्षक भले ही किताबों में भारत को कृषि प्रधान देश पढ़ाता हो, लेकिन जब वही शिक्षक एक मुख्यमंत्री बन जाता है, तो वह दूर हट जाता है। किसानों की समस्याओं का समाधान तब तक संभव नहीं है, जब तक किसानों के लिए अलग से कृषि नीति लागू नहीं होगी। भले ही कर्ज माफ कर दिया जाए, लेकिन व्यवहारिक दिक्कतों के चलते किसानों का शोषण और अपने हक के लिए संघर्ष कम नहीं होगा। आत्महत्याओं की तादाद में कमी भी बेमानी होगी। जल्द ही देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। चुनावी बिसात पर अपनी गोटी फिट करने को लेकर बड़े-बड़े दावों का मौसम आ गया है। इस बीच एक बार फिर कृषि नीति की हवा आसमान में तैरती सी नजर आ रही है।

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