बुधवार, 1 दिसंबर 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स की कुछ अनकॉमन बातें

सत्यजीत चौधरी    
विवादों, अधूरेपन, मौसम की मार और करप्शन की बयार के बीच कॉमनवेल्थ गेम्स-२०१० की नई दिल्ली में ओपनिंग और क्लोजिंग शानदार रही। खेलों की बात की जाए तो मौजूदा दौर में क्रिकेट के बाद शायद कॉमनवेल्थ गेम्स-२०१० ऐसा इवेंट होगा, जिसे भारत के लोग लंबे समय तक याद रखेंगे। 38 गोल्ड और कुल 101 मेडल के साथ भारत ने ओलंपिक्स खेलों के आयोजन को लेकरअपने दमखम के दावे पर पक्की मुहर भी लगा दी। लंबे वक्त तक खेल गांव और दूसरे स्टेडियम्म की रूमानी रंगीनियां और दिल्ली का दिलकश कायापलट लोगों के जेहन में कौंधता रहेगा। इस खेल आयोजन ने एक बार फिर साबित कर दिया कि असली भारत गांवों में बसता है। दुनियाभर के 53 देशों से आई 71 टीमों में भारत की मिट्टी की सोंधी महक मुखर रही। महिला कुश्ती में सोना जीतने वाली अलका तोमर हों या फिर जिमनास्टिक्स को चांदी की चमक देने वाला इलाहाबाद का छोरा आशीष कुमार, सबकी जड गहरी गांव से जुडी हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स-2010 ने साबित कर दिया कि भारतीय खेल के सुपर हीरो सिर्फ बड़े शहरों के सुविधा सपन्न स्टेडियमों और शूटिंग रेंज्स से निकल कर नहीं आते है, गांव की पगडंडियों से भी चलकर आते हैं और अपने हुनर से सबको चकित कर देने का माद्दा रखते हैं। कुरुक्षेत्र के उर्मी गांव के राजेंद्र कुमार सहारन का सफर भूख से गोल्ड मेडल तक का रहा। ग्यारह साल की कच्ची उम्र से गांवों के दंगलों में कुश्ती लड़कर परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने वाले इस मल्ल ने अपनी लगन और हौसले से इस बुलंदी को छुआ। मेरठ के सिसौली गांव की अलका तोमर भी गांव की कच्ची मिट्टी में हमजोलियों से कुश्ती लड़-लड़कर इस मुकाम तक पहुंची। रिकर्व तीरंदाजी में भारत को सोना दिलाने वाली दीपिका आदिवासी है और उसके पिता ऑटो रिक्शा चलाते हैं। डोला बनर्जी जैसी सिद्धहस्त तीरंदाज के हाथ कांपे तो 16 साल की इस छोरी ने प्रत्यंचा खींची और निशाना गोल्ड पर सटीक बैठा। भिवानी की तीन बहनों को कोई कैसे भूल सकता है। आज भले गीता, बबीता और अनीता पर पैसों की बरसात हो रही हो, लेकिन मिट्टी से मेडल तक का कठिन सफर इन बहनों ने कैसे तय किया है, यह वे ही जानती हैं। प्रदेश स्तर पर देखा जाए तो कॉमनवेल्थ गेम्स में हरियाणा का दबदबा रहा। हरियाण की महिलाओं ने अकेले आठ पदक जीते। पुरुष रेस्लरों और मुक्केबाजों ने जो तमगे हासिल किए वे अलग हैं। उत्तर प्रदेश को चार स्वर्ण के साथ आठ पदकों पर संतोष करना पडा। निशानेबाजी के लिए आजमगढ़ के ओंकार, वेटलिफ्टिंग के लिए लखनऊ की रेणु बाला, कुश्ती के लिए मेरठ की अलका तोमर और निशानेबाजी के लिए बरेली के इमरान हसन को जब सोने के मेडल से नवाजा गया तो उस दौरान उनकी हौसला अफजाई के लिए उत्तर प्रदेश सरकार का कोई नुमाइंदा खेल गांव में मौजूद नहीं था। खेलों को लेकर यह है हमारी राज्य सरकार की उदासनीता। इसके बरअक्स हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा विभिन्न मौकों पर अपने खिलाडिय़ों के साथ न सिर्फ बने रहे, बल्कि खिलाडिय़ों को प्रोत्साहित भी करते दिखे। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भी कई मुकाबलों में मौजूद रहे और उन्होंने का जोश बढ़ाया।
इस बारे में जब अलका तोमर का मन टटोला तो वहां निराशा भरी थी। एमटीएनएल कर्मचारी अलका को इस बात का रंज है कि प्रदेश से मंत्री तो दूर कोई अधिकारी भी उसकी खुशियों में शरीक होने नहीं पहुंचा। अर्जुन सम्मान से नवाजी जा चुकी अलका बताती है कि गांवों में खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं। उन्हें खोजने और तराशने की जरूरत है। अगर राज्य सरकार खेल की तरफ ध्यान देती तो हम भी हरियाणा की तरह मेडल का ढेर लगा देते। अलका तो यह तक पता नहीं है कि उत्तर प्रदेश का खेल मंत्रालय कौन देख रहा है।जिस समय हरियाणा में तमगे लाने वाले खिलाडिय़ों पर पैसों और मान-सम्मान की बरसात हो रही थी, अपने प्रदेश के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने दो पैरे का एक प्रेस नोट जारी किया, जिसमें दर्ज था कि मुख्यमंत्री ने कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने वाले खिलाडिय़ों को बधाई दी है। बाद में कैबिनेट सचिव ने ऐलान किया कि मेडल जीतने वाले प्रदेश के खिलाडिय़ों को राज्य सरकार की तरफ से माननीय कांशीराम अंतरराष्ट्रीय खेल अवॉर्ड से नवाजा जाएगा।
बहरहाल, प्रदेश के आठ खिलाड़ी ऐसे हैं, जिनकी दीपावली इस बार खासी हसीन होगी, लेकिन इन तमाम रंगीनियों के बीच कुछ ऐसे भी खिलाड़ी है, जिनके हिस्से में अंधेरा आया। ऐसा नहीं है कि उनमें कौशल की कमी है या उन्होंने मेहनत नहीं की। खेलों के प्रति सरकार की उदासीनता, अच्छे खेल उपकरणों का अभाव उनकी प्रतिभा को खा गया। अभी हाल में लंदन में हुई विश्व की शूटिंग प्रतियोगिता में भारत को रजत पदक दिलाने वाली बागपत के जौहड़ी गांव की सीमा तोमर एकल और ग्रुप स्पर्धाओं में स्थान नहीं बना सकीं। सीमा के पास सेना की शॉट गन है जिसे अभ्यास के बाद जमा करना पड़ता है। जौहड़ी शूटिंग रेंज से अपना कॅरियर शुरू करने वाली सीमा का कहना है कि वेपन महंगे हैं हर कोई नहीं खरीद सकता। सरकार ने इस दिशा में हमारी कभी मदद नहीं की। सीमा को इस बात का भी दुख है कि इस खेल आयोजन को पैसों से जोड़ दिया गया, जिससे खिलाड़ी भारी मानसिक दबाव में रहे। सीमा को इस बात का भी दुख है कि प्रदेश सरकार की तरफ से खेल निखारने के लिए न तो उसे कोई प्रोत्साहन मिला और न ही कोई मदद।

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