सोमवार, 3 मार्च 2014

आतंक का राजनीतिकरण

सत्यजीत चौधरी 
   राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा माफ किए जाने के फौरन बाद सभी दोषियों की रिहाई के बारे में तमिलनाडु सरकार के अप्रत्याशित और त्वरित फैसले के एलान पर केंद्र में कांग्रेसनीत सरकार और कांग्रेस पार्टी की तरफ से दो मार्मिक बयान आए। पहला बयान एक बेटे का था तो दूसरा देश के प्रधानमंत्री का। अमेठी का दौरा कर रहे कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी जब पूरब गांव में एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे तो उनके पीएस ने जयललिता की घोषणा के बारे में उनको सूचना दी। राहुल खुद को रोक नहीं सके। दिल की बात जनता के सामने रख दी। कहा, मेरे पिता जी की हत्या हुई थी। उन्होंने देश के लिए जान दी थी। हमारे पिता या परिवार की बात नहीं है ।देश की बात है ,अगर कोई आदमी प्रधानमंत्री की हत्या कर दे और उसे छोड़ दिया जाए जिस देश में प्रधानमंत्री के हत्यारों को छोड़ दिया जाता है, उसमें आम आदमी को न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है सोचने की बात है। मेरे पिता के हत्यारे छोड़े जा रहे और मैं निराश हूं।


    दूसरा बयान आमतौर पर अपने एक चुप—हजार चुप के लिए मशहूर डॉ मनमोहन सिंह का था, जिन्होंने राजीव गांधी की हत्या को ‘भारत की आत्मा पर हमला‘ करार देते हुए तमिलनाडु सरकार के फैसले को गलत बताया। सभी पार्टियों को आतंकवाद के प्रति कड़ा रुख अपनाने का अनुरोध करते हुए उन्होंने तमिलनाडु सरकार के फैसले की आलोचना की और कहा कि हत्यारों को रिहा करने की प्रस्तावित योजना कानूनी रूप से तर्कसंगत नहीं है और इसे आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए।
     इन दोनों बयानों के राजनीतिक मतलब निकालने के बजाये अगर इनकी बिटवीन द लाइंस पढ़ी जाएं तो एक बात साफ हो जाती है कि वोट की चाह का घुन कैसे हमारी नैतिकता, संस्कारों और सोच का खोखला कर रहा है। मिसाल के तौर पर दिल्ली की पूर्व आम आदमी सरकार के दो फैसलों को लें। पहला 1984 के सिख दंगों की जांच के लिए सरकार एआईटी के गठन का फैसला करती है और दूसरा दिल्ली बम कांड के दोषी देवेंदर सिंह भुल्लर की फांसी की सजा की माफी के लिए राष्ट्रपति को उपराज्यपाल के माध्यम से प्रतिवेदन भेजती है और फिर उसका फॉलोअप भी करती है। माना जा रहा है कि ये दोनों फैसले सीधे सिखों को रिझाने के लिए लिये गए हैं।
     
दरअसल, जब से क्षेत्रीय दलों के उदय के साथ ही वोटों का भी विभाजन हुआ है। पार्टियों के लिए वोट बैंक बनाना और उसको साधे रखना मुश्किल होता जा रहा है, ऐसे में राजनीतिक दल वे सारे तरीके अपना रहे हैं, जिनसे वोट की फसल काटी जा सके। मुजफ्फनगर के दंगे हों या केंद्र सरकार द्वारा जाटों और जैन समुदाय के लोगों को आरक्षण का लॉलीपॉप, यूपीए सरकार द्वारा मुसलमानों को रिझाने के लिए समान अवसर आयोग के गठन को मंजूरी का मामला हो या फिर बड़ी संख्या में विरोध के बावजूद आंध्र प्रदेश के टुकड़े कर तेलंगाना के गठन की पहल। राजनीति फायदे के लिए पार्टियां किसी भी हद तक जाने को तत्पर हैं।
    मौजूदा समय में ‘सजा—ए—मौत’ दया और सहानुभूति की बारीक पॉलिटिकल रफूगीरी हो रही है। ‘सजा—ए—मौत’, तीन शब्दों की यह अदालती टर्मिनोलॉजी अंदर तक हिला कर रख देती है। सजा—ए—मौत यानी हाड़-मांस एक व्यक्ति की सांसों के आगे फुलस्टाप लगा देने की अंतिम न्यायिक लाचारी। इस फैसले के आगे न न्याय की किताब कुछ कहती है और न ही कानून बनाने वाला इंसान कुछ कर सकता है। अर्थात उस व्यक्ति ने ऐसा दुर्लभतम अपराध किया है, जिसके लिए इस सजा से कम कुछ नहीं हो सकता है। हिटलर, जोसेफ मुलोसिनी, पोट पॉल, ईदी अमीन, सद्दाम हुसैन, ओसामा बिन लादेन, ऑगस्टो पिनोशे, मुअम्मर गद्दफी बहुत लंबी लिस्ट है कुछ ने खुद जान दे दी, कुछ को जनता ने मार दिया और कुछ सिस्टम या सरकार के हाथ मारे गए। जो अप्राकृतिक मौत मरने से बच गए, वे तिल-तिल कर मरे। इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं, जैसे सैन्य शासन द्वारा पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी देने का मामला। खैर कहने का मतलब यह है कि पूरी दुनिया में गुनहगार को कानून द्वारा जल्द से जल्द सजा देने का प्रावधान है। सिर्फ भारत ही इससे अछूता है। अफजल गुरु और कसाब के मामलों को छोड़ दिया जाए तो यहां पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और दूसरे बड़े नेताओ के हत्यारों को मिली मौत की सजा पर सियासी गोटियां चली जाती हैं। मानवीयता और दया की आड़ वोट का कारोबार होता है।
     अब चूंकि लोकसभा के चुनाव करीब हैं तो दया की राजनीति हिलोरे लेने लगी है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा पाए कई लोगों की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया था तो उसी समय राजीव गांधी के हत्यारों और दिल्ली बम कांड के दोषी देवेेंदर सिंह भुल्लर के रिश्तेदारों ने अपने वकीलों को सक्रिय कर दिया था।

जयललिता का सियासी मास्टर स्ट्रोक
  यह राजनीति और खामियों से भरी हमारी कानूनी प्रक्रिया का दोष है, जिसके चलते पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों की रिहाई का रास्ता साफ होने के आसार बन रहे हैं। देश में अगर पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों की ही रिहाई होने लगी तो बाकी हत्यारों के बारे में तो कल्पना ही की जा सकती है। हमारे राजनीतिक दल वोट की खातिर किस हद तक जा सकते हैं, इसे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की हड़बड़ी से समझा जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा उम्रकैद में बदलने के चौबीस घंटे के भीतर जयललिता सरकार का हत्यारों को जेल से रिहा करने का फैसला चौंकाने वाला था। बड़ी संख्या में लोग इसे जयललिता का सियासी मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं। तमिलनाडु में लोकसभा की 39 सीटें हैं। करुणानिधि की डीएमके के पास 18 और जयललिता की अन्नाद्रमुक के पास 9 सीटें हैं। इस साल के आम चुनाव में जयललिता की निगाहें कम से कम 22 सीटों पर हैं। जितने ज्यादा सीटें होंगी, उतना ही केंद्र में बनने वाली सरकार से सौदा करने में आसानी होगी। अम्मा जानती है कि 22 सीटों का आंकड़ा पाना आसान नहीं है। तमिल राष्ट्रवाद का नारा देने वाले वाइको की दक्षिण तमिलनाडु में अच्छी पकड़ है। करुणानिधि या वाइको श्रेय की राजनीति शुरू करें, इससे पहले उन्होंने अप्रत्याशित जल्दबाजी दिखाते हुए रिहाई का पांसा चल दिया।
अब यह बात दीगर है कि केंद्र सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी के तीन हत्यारों की रिहाई पर रोक लगा दी है, लेकिन जयललिता का ‘रिहाई का ऐलान’ तमिल भाषी वोटरों के दिल पर जादू चला चुका है।

सुप्रीम कोर्ट ने उठाए सवाल :
राजीव गांधी के तीन हत्यारों की रिहाई पर रोक लगाने वाली बेंच ने हालांकि अपने आदेश में आश्चर्य जताते हुए सवाल खड़ा किया कि कैदियों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदले जाने के एक दिन बाद ही राज्य सरकार ने प्रक्रिया कैसे पूरी कर ली। बेंच ने कहा, फांसी को उम्रकैद में बदले जाने का यह मतलब कतई नहीं है कि उन्हें (दोषियों को) ऑटोमेटिक रिहा कर दिया जाए। हम राज्य सरकार के अधिकारों को कम नहीं कर रहे हैं, लेकिन कानूनी प्रक्रिया की अनदेखी भी नहीं हो सकती है।

लंबी है रिहाई संबंधी प्रक्रिया
-किसी कैदी को रिहा करने के लिए राज्य सरकार को लंबी कानूनी प्रक्रिया का पालन करना होता है।
-सीआरपीसी की धारा 435 के तहत सजा माफ करने के लिए राज्य सरकार को छह सदस्यीय सलाहकार बोर्ड का गठन करना पड़ता है।
राजीव गांधी के हत्यारों की सजा माफी के मामले में एडीजी (जेल) और वेल्लोर जेल के अधीक्षक को भी शामिल करना होगा।
-पूरी प्रक्रिया पूरी कर बोर्ड राज्य सरकार को रिपोर्ट भेजेगा। वैसे संस्तुति को मानने के लिए राज्य सरकार बाध्य नहीं होगी।


     अब सवाल यह उठता है कि देश के प्रधानमंत्री को सरेआम मौत के घाट उतारने वाले हत्यारों के साथ दया दिखाने कहा तक सही है। जयललिता ने सातों हत्यारों को रिहा करने का फैसला इसलिए लिया क्योंकि वे सभी तमिल नागरिक हैं। अगर राजीव गांधी भी तमिल होते तो क्या जयललिता हत्यारों को छोडऩे की सोच सकती थीं? देश की राजनीति ने आज कानून को भी मजाक बनाकर रख दिया है।

कांग्रेस भी कठघरे में
     राजीव के हत्यारे को लेकर कांग्रेस द्वंद्व की स्थिति में है। राजीव की पुत्री प्रियंका जेल में जाकर राजीव हत्याकांड की प्रमुख साजिशकर्ता नलिनी से मुलाकात कर चुकी हैं। जब तब गांधी परिवार का राजीव की हत्या को लेकर अपना गम और गुस्सा प्रकट करता है, लेकिन पार्टी और सत्ता के स्तर पर राजीव के परिवार की चिंता नहीं दिखाई देती। राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी की सजा मिलने के ग्यारह साल बाद तक फांसी पर नहीं लटकाना हमारी न्याय प्रक्रिया पर सवाल खड़े करती है।
     देश के प्रधानमंत्री रहे व्यक्ति के हत्यारों की दया याचिका पर ग्यारह साल तक फैसला न हो पाने को क्या माना जाए? पिछले दस साल से केंद्र में कांग्रेस की सरकार हो और उसके नेता के हत्यारों को अदालत द्वारा सुनाई गई सजा न दी जा सके, इससे बड़ा मजाक शायद ही कोई हो। दया याचिकाओं पर सालों तक निर्णय ना हो पाने का मामला लंबे समय से विवादों के केंद्र में बना हुआ है, लेकिन सरकार इस दिशा में गंभीर नजर नहीं आई।
‘अनन्तकाल’ तक लटकते मामले
     संविधान निर्माताओं ने बेशक दया याचिका के निपटारे के लिए समय—सीमा न तय की हो, पर उनका आशय याचिका को ‘अनन्तकाल’ तक लटकाए रखने का नहीं रहा होगा। क्यों ना ऐसा कानून बना दिया जाए कि निश्चित समय में दया याचिका पर फैसला ना हो तो याचिका को स्वत: खारिज मान लिया जाए।
     राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा उम्रकैद में बदलने वाले उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी सरकार को यही सलाह दी है। न्यायाधीशों ने सरकार से कहा कि कार्यपालिका को अपने अधिकारों का इस्तेमाल किसी भी रूप में उचित समय के भीतर ही करना चाहिए। वह उचित समय क्या हो, इसका निर्धारण हर हाल में कर लिया जाना चाहिए। सही मायनों में कानून का सम्मान तभी हो पाएगा।
     सुप्रीम कोर्ट ने हाल में जब राजीव गांधी हत्याकांड के तीन दोषियों की फांसी की सजा उम्रकैद में बदल दी तो दया याचिका में हुई 11 साल की देरी को दोषियों की सजा माफ करने का आधार बनाया। कोर्ट ने इसे अत्यधिक विलंब माना। फैसला सुनाते हुए शीर्ष अदालत ने विरोध कर रही केंद्र सरकार के तमाम तर्कों को भी खारिज कर दिया। 21जनवरी का फैसला बना आधार:
    कोर्ट ने इस साल 21 जनवरी को फैसला दिया था, जिसमें कहा था कि दया याचिकाओ के निपटारे में विलंब मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील करना का आधार हो सकता है। यदि कैदी मानिसक रूप से बीमार है तो उसे फांसी नहीं हो सकती। इसके साथ पीठ ने 15 कैदियों की सजा उम्रकैद में बदल दी थी।

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