सोमवार, 3 मार्च 2014

रावत कि कच्ची राह

सत्यजीत चौधरी 
  उत्तराखंड में हरीश रावत को विरासत में जो सत्ता मिली है, उसकी चूलें हिली हुई हैं। सरकार की छवि पर डेंट पड़ा हुआ है, उसे रिपेयर करना है। नौकरशाहों में विश्वास बहाली कर उन्हें ठप पड़े विकास कार्यों से जोडऩा है। नाराज मीडिया को मनाना है, ताकि सही सूचना शासन तक पहुंच सके। इनमें सबसे बड़ा काम है, प्राकृतिक आपदा के बाद उपेक्षा की शिकार जनता को यह समझाना कि अब उसके साथ न्याय नहीं होगा। इन सबसे ऊपर है लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी को तैयार करना। रेत घड़ी तेजी से सरक रही है और हरीश रावत जानते हैं कि उन्हें बिना रुके अनथक काम करना होगा, वरना जिस चुनावी मिशन पर उन्हें उत्तराखंड भेजा गया है, वह धरा रह जाएगा।
   इन तमाम चुनौतियों के साथ उन्हें पार्टी के भीतर खेमेबाजी से निपटना है। कहते हैं कि सबको खुश करना नामुमकिन है, लेकिन हरीश रावत को यह असंभव काम भी कर दिखाना है।
    हरीश कड़े फैसले ले रहे हैं और जनता तक सीधी पहुंच बनाने के लिए ग्रास रूट तक जा रहे हैं। शायद यही वजह है कि लोगों को उनमें नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल का फ्यूजन नजर आ रहा है। हरीश रावत की जद्दोजहद प्रदेश की राजनीति में क्या असर डालेगी, विपक्ष भी इसके इंतजार में है।

     हरीश रावत खांटी किस्म के नेता हैं। छात्र राजनीति से राजनीति का ककहरा सीखने वाले रावत चार दशक लंबे अपने सियासी सफर में हाईकमान के करीब रहे। संगठन के लिए काम किया, केंद्रीय मंत्री की भी जिम्मेदारी संभाली, लेकिन सूबे की कमान संभालने की उनकी पुरानी ख्वाहिश को गुटबाजी के दबाव में कांग्रेस आलाकमान नजरंदाज करता रहा।

    दरअसल, देखा जाए तो पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की नाकामियों में रावत की कामयाबी छिपी है। चुनाव से कुछ माह पहले बहुगुणा के खराब रिपोर्ट कार्ड ने कांग्रेसी योजनाकारों की पेशानी पर फिक्र की लकीरें गहरी कर दी थीं। ऐसी सूचनाएं मिल रही थी कि नौकरशाह और राज्य के कर्मचारी बिजय बहुगुणा की ढुलमुल नीतियों और साथ लेकर न चल पाने की काबलियत से खासे नाराज हैं। शायद यही वजह है कि नौकरशाह बेलगाम होने लगे थे और इसका सीधा असर आपदाग्रस्त क्षेत्रों में राहत कामों के साथ ही विकास पर भी पड़ रहा था।
     अब कमान हरीश रावत के पास और उनके सामने अपेक्षाओ का पहाड़ खड़ा है। उन्हें प्रदेश की जनता को विश्वास दिलाना होगा कि राज्य में भाई-भतीजावाद बंद होगा और विकास गति पकड़ेगा। पिछले साल आई प्राकृतिक आपना के शिकार पुलों और सडक़ों का निर्माण होगा। उन हजारों लोगों तक मुआवजे की राशि पहुंचेगी, जिनकी आंखें मदद की आस में टकटकी लगाए पथरा गई हैं।
      दूसरी अपेक्षा कांग्रेस की है। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के रूप में उनका चयन ऐसे नहीं कर लिया है। यह एक रणनीतिक कदम है। विजय बहुगुणा को हटाकर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लेने से पहले आलाकमान को न जाने कितनी बार अगर—मगर से होकर गुजरना पड़ा होगा। जिन राजनीतिक परिस्थितियों में हरीश रावत की ताजपोशी हुई, उनके रहते हाल-फिलहाल तो रावत के लिए राज का मजा लेने सरीखा कुछ है नहीं। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती लोकसभा चुनाव की है।
   
पार्टी के बड़े नेता जानते हैं कि केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए—2 की सरकार पर कई काले साये मंडरा रहे हैं। पूरे देश में कांग्रेस विरोधी लहर है और नरेंद्र मोदी के परचम के साथ अब अरविंद केजरीवाल का झंडा भी फहराता दिखने लगा हैं। महंगाई से बेहाल देख की जनता कांग्रेस को कोस रही है। इसके सीधा असर सूबों की राजनीति पर भी पडऩा शुरू हो गया है। अकेले उत्तराखंड की बात की जाए तो विजय बहुगुणा न सिर्फ एक विफल मुख्यमंत्री साबित हुए, बल्कि प्रदेश के हालात भी कांग्रेस के खिलाफ कर दिए। एेसा नहीं है कि उन्हें हाईकमान ने संभलने के मौके नहीं दिए। कांग्रेस की स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही हो गई है, जिस तरह खंडूड़ी के शासनकाल में भाजपा की थी और अखिलेश यादव की हुकूमत में समाजवादी पार्टी की है। भाजपा ने खंडूड़ी को ढोते रहने की गड़बड़ी की, जबकि कांग्रेस ने देर से सही, लेकिन कंधे पर लदे बेताल (विजय बहुगुणा) से मुक्ति पा ली।
    अंदरखाने की खबर यह है कि हरीश रावत को बता दिया गया है कि जितनी जल्दी हो सके, मरम्मत कर पार्टी के संगठन को फिर से जिंदा करें और गुटबाजी पर लगाम लगाकर नेताआें को चुनाव अभियान से जोड़ें। कांग्रेस जानती है कि उत्तर भारत उसकी हालत खस्ता है। उत्तर प्रदेश और बिहार में वह शून्य की स्थिति में है। एेसे में उसे अपने शासित राज्यों से अधिक से अधिक सीटों की दरकार है।
     अब आते हैं हरीश रावत के वर्क कल्चर पर। हरीश की पहचान एक कर्मठ नेता के रूप में है। यह बात दीगर है कि उन्हें चार दशक के सियासी कैरियर के बाद बुढ़ापे में जाकर चुनौती भरी जिम्मेदारी मिली है। हरीश पूरी ऊर्जा के साथ लगे हुए भी हैं। वह जितनी तेजी दिखा रहे हैं, उससे यही लग रहा है कि उन्होंने एक-एक मिनट की कैलकुलेशन कर रखी है। नाकाम रहने का नतीजा वह जानते हैं। देर रात तक आला अफसरों के साथ बैठकें करना और प्रदेशस्तरीय नेताआें से लेकर छोटे कार्यकर्ता को समय देकर उनकी बात सुनने में उन्होंने खुद को चकरघिन्नी बना लिया है। उनका पूरा फोकस इस बात को लेकर है कि कैसे भी हो, जनता के मध्य बदली हवा का संदेश चला जाना चाहिए। इसके लिये चाहे उन्हें ढाबे पर चाय की चुस्की लेनी पड़े, मलिन बस्तियों के बच्चों को गोदी में उठाना पड़े, सुबह और शाम जनता से मिलना पड़े, घोषणा के फौरन बाद शासनादेश जारी कराने पड़ें या फिर मंत्री और मुख्यमंत्री के फर्क को समझाने पड़ें, सब कर रहे हैं। ये और बात है कि उनकी ये तमाम कोशिशें चुनावी नतीजों के रूप में किस तरह से सामने आती हैं, यह बाद में पता चलेगा।
     वह कूटनीति से भी काम ले रहे हैं। विजय बहुगुणा का खेमा अड़ंगा न डाले, इसके लिए उन्होंने बहुगुणा के बेटे साकेत बहुगुणा संगी बना लिया है। रिश्तेदारों से साफ कह दिया है कि सिफारिशी काम कतई लेकर न पहुंचें।
हरीश के सामने पार्टी के भीतर से भी चुनौतियां कम नहीं हैं। जिस दिन से वह मुख्यमंत्री बने है, कइयों की आंख में खटक रहे हैं। हरीश रावत ने मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में से एक कांग्रेसी दिग्गज सतपाल महाराज को साधने का काम शुरू कर दिया है। सतपाल महराज अब रावत के खिलाफ उतना विष वमन नहीं कर रहे, जितना पहले कर रहे थे।
     हरीश रावत ने जिन परिस्थितियों में प्रदेश की कमान संभाली है उसकी जमीनी हकीकत काफी निराशाजनक है। उन्हें पता है कि सिर्फ खोखले वादों और निखालिस बयानबाजी से चुनावी मैदान में नहीं उतरा जा सकता। सियासी कौशल से उन्होंने उत्तराखंड का ताज तो अपने नाम करा लिया पर उसे संभाले रखने के लिए उन्हें एक साथ कई चुनौतियों से निपटना पड़ेगा। लोकसभा चुनाव से पहले मार्च में पंचायत के चुनाव हैं। ये चुनाव काफी हद तक कांग्रेस के प्रति जनता के रुझान का खाका खींचेगे।
      हाल में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार से यह तो तय है कि जनता ने कांग्रेस को खारिज कर दिया है और वह बदलाव चाहती है। उत्तराखंड के हालात भी इससे जुदा नहीं हैं। यहां पिछले वर्ष हुए स्थानीय निकाय के चुनाव में कांग्रेस को हकीकत का पता चल चुका है।

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