शुक्रवार, 2 मई 2014

मुश्किल होती कांग्रेस की राहें !

सत्यजीत चौधरी 
      कहते हैं मुसीबत में साया भी साथ छोड़ देता है। यही हाल कांग्रेस का हो रहा है। नरेंद्र मोदी की हवा और आम आदमी पार्टी की धमक के चलते कांग्रेस हाशिये की तरफ खिंचती नजर आ रही है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में पार्टी के वरिष्ठ नेता साथ छोड़ रहे हैं तो तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में अपने ही जख्म दे रहे हैं। बिहार में हाल में राजद के साथ कांग्रेस के गठबंधन में मिठास कम और खटास ज्यादा है। 

द्रमुक ने दिया दर्द 
आखिरी क्षणों में पलटी मारकर कांग्रेस के लिए दरवाजे बंद करते हुए द्रमुक ने पिछले दिनों तमिलनाडु में 35 और पुडुचेरी की एक लोकसभा सीट पर अपने उम्मीदवारों की सूची का ऐलान कर दिया कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी। भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने के बाद जिन दो मंत्रियों, ए राजा और दयानिधि मारन को द्रमुक ने फिर से उम्मीदवार बना दिया है। पिछले साल यूपीए से अलग होकर द्रमुक ने साफ कर दिया था कि भविष्य में वह कांग्रेस से कोई नाता नहीं रखेगी। अब हालात ये हैं कि तमिलनाडु कांग्रेस अलग—थलग सी पड़ गई है। यहां 24 अप्रैल को वोट पडऩे हैं। राज्य में लगभग सभी पार्टियों ने उससे दूर रहना पसंद किया है।
      पूर्व गठबंधन सहयोगी द्रमुक द्वारा चुनावी तालमेल का दरवाजा बंद करने और डीएमडीके के भाजपा की तरफ रुझान के बाद कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा हो गई है। अब तक कांग्रेस तमिलनाडु में दो प्रमुख द्रविड़ पाॢटयां—द्रमुक और अन्ना द्रमुक के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की आदी रही है। अब यहां 1998 की तरह का परिदृश्य बनता दिख रहा है। तब कांग्रेस की झोली में एक भी सीट नहीं आई थी।
     कांग्रेस के अलग—थलग पडऩे के और भी कारण हैं। कांग्रेस ने राजीव गांधी हत्याकांड मामले में सात दोषियों की रिहाई का विरोध किया था। इससे भी उसकी परेशानियां बढ़ी हैं। अन्नाद्रमुक प्रमुख एवं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता ने इस हत्याकांड में उम्रकैद की सजा पाए सात दोषियों की रिहाई का निर्देश दे कर इस संवेदनशील मुद्दे पर बाजी मार ली। उसके घोर विरोधी द्रमुक ने भी रिहाई का समर्थन किया।
     अब चलते हैं आंध्र प्रदेश। विभाजन से पहले आंध्र प्रदेश में अप्रैल-मई में लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव होने हैं और विभाजन के बाद बनने वाले दोनों राज्यों में कांग्रेस की हालत खराब है।

सीमांध्र में कांग्रेस बनी खलनायक
सीमांध्र (रायलसीमा और तटीय आंध्र) में आम लोग कांग्रेस को राज्य को विभाजित करने वाले एक खलनायक के रूप में देख रहे हैं। तेलंगाना में कांग्रेस को लगता है कि अलग राज्य दिलाने के लिए उसकी सकारात्मक छवि है, लेकिन वहां भी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) ने कांग्रेस में विलय से इनकार कर दिया है।
सीमांध्र में वाईएसआर कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) की स्थिति सर्वेक्षणों में मजबूत दिख रही है। तेलंगाना में अलग राज्य बनाने में सफल रहने का पूरा—का—पूरा श्रेय टीआरएस लूट सकती है। संसद में तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का विधेयक पारित कराने के बाद कांग्रेस को पूरा विश्वास था कि टीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव अपनी पार्टी का कांग्रेस का विलय कर देंगे, लेकिन राव ने यह कहकर कांग्रेस को हैरत में डाल दिया कि यदि चुनाव समझौता करने के लिए कांग्रेस उनसे संपर्क करेगी, तो वह विचार करेंगे।
2001 में गठित टीआरएस के लिए तेलंगाना का गठन एक मात्र एजेंडा था। शुरू में राव ने कहा था कि यदि कांग्रेस यह मकसद हासिल करने में मदद करेगी, तो वह पार्टी का कांग्रेस में विलय कर देंगे।
उन्होंने हालांकि तेलंगाना के पुनर्गठन का नारा देकर ऐन वक्त पर यूटर्न ले लिया और घोषणा कर दी—आगे से टीआरएस एक संपूर्ण राजनीतिक पार्टी होगी। अब कांग्रेस कह रही है कि वह टीआरएस पर निर्भर नहीं है। कांग्रेस का भरोसा है कि तेलंगाना का फायदा उसे चुनाव में मिलेगा, लेकिन साथ ही उसे 
सीमांध्र में सफाये का डर सता रहा है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एन किरण कुमार रेड्डी जय समैक्यांध्र नाम की नई पार्टी बना चुके हैं। 
गौरतलब है कि राज्य विभाजन का विरोध करने वालों का नारा भी जय समैक्यांध्र था। नई पार्टी के नाम का ऐलान करते हुए रेड्डी ने जो बातें कहीं वे चुनाव में कांग्रेस के लिए मुसीबत बढ़ाएंगी। रेड्डी का निशाना तेलुगू भाषी वोट पर है। उन्होंने कहा कि नई पार्टी तेलुगू भाषी लोगों के आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करेगी। उन्होंने दावा किया है कि उनकी पार्टी के टिकट पर लोकसभा और विधानसभा चुनाव लडऩे के इच्छुक कई नेताओ के आवेदन प्राप्त हुए हैं। उनका इशारा कांग्रेस के उन नेताओ की तरफ है, जो तेलंगाना के एेलान के बाद कांग्रेस में बने हुए तो हैं, लेकिन नाराज हैं।

पुरंदेश्वरी ने दिया झटका
तेलंगाना के मुद्दे पर कांग्रेस को दूसरा बड़ा झटका डी पुरंदेश्वरी ने दिया। एटी रामाराव की पुत्री पुरंदेश्वरी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल और कांग्रेस को अलविदा कहने के बाद भाजपा का दामन थाम लिया। भाजपा उन्हें विशाखापट्टनम सीट से उतार सकती है। डी पुरंदेश्वरी का राज्य में काफी दबदबा है और उनके भाजपा में जाने से कांग्रेस को खासा नुकसान होने का अंदेशा है। 
आमचुनाव की घोषणा के बाद लालू के राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकंपा) के बीच लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन की औपचारिक घोषणा कर दी गई है। बिहार की 40 सीटों में से राजद 27 सीटों पर जबकि कांग्रेस 12 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। राकंपा को एक सीट दी गई है।

बिहार में 
बिहार में लालू प्रसाद के सीट बंटवारे में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी। कांग्रेस थकाओ और राजी करो के फार्मूले पर काम कर रही थी। यही वजह थी कि पार्टी ने रामविलास पासवान को लंबे समय तक लटकाए रखा। पासवान ने हालात को भांपा और कांग्रेस का इंतजार किए बगैर फिर से एनडीए का हिस्सा बनने में देर नहीं की। रह गए लालू प्रसाद यादव। जब काफी वक्त गुजर जाने के बाद भी कांग्रेस ने सीटों पर पत्ते नहीं खोले तो लालू ने तुरप की चाल चल दी और कह दिया कि कहा कि बिहार की चालीस सीटों में से कांग्रेस को ग्यारह और एनसीपी को एक सीट देंगे। भौंचक्की कांग्रेस को यहां आकर लगा कि उसकी हालत कितनी खस्ता हो चुकी है। कभी कांग्रेस की शान में कसीदे पढऩे वाले लालू अब अपने हिसाब से चल रहे हैं। कई दिनों की रगड़-घिस के बाद लालू माने और कांग्रेस को 12 और एनसीपी को एक सीट देने पर सहमति बनी। 
     राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद और बिहार कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी ने इसकी औपचारिक घोषणा की। उन्होने कहा कि गठबंधन के बाद बिहार में सांप्रदायिक शक्तियों से डटकर मुकाबला किया जाएगा। लालू ने कहा कि आज सांप्रदायिक शक्तियों से देश की एकता और अखंडता को खतरा है, इसलिए सभी दलों को एकजुट होना आवश्यक है। लालू ने कहा कि पिछले चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन नहीं करना उनकी भूल थी।

हरियाणा में भी लगे झटके
मोदी की हवा से प्रभावित और कांग्रेस से खफा हरियाणा कांग्रेस के कई कद्दावर नेता पार्टी को गुडवाय कह चुके हैं। कांग्रेस को राज्य में ताजा और बड़ा जख्म देने वालों में पूर्व केंद्रीय मंत्री विनोद शर्मा का नाम सबसे ऊपर है। विनोद शर्मा की गिनती खांटी कांग्रेसियों में होती है, लेकिन हाल के वर्षों में वह हाईकमान और मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की उपेक्षा से आहत थे। माना जा रहा है कि वह कुलदीप विश्नोई के नेतृत्व वाली हरियाणा जनहित कांग्रेस में शामिल होंगे। 
      सूत्रों के मुताबिक विनोद शर्मा और भाजपा—हजकां गठबंधन के बीच हुए एक समझौते के तहत शर्मा अब हजकां उम्मीदवार के रूप में करनाल लोकसभा सीट से अपना भाग्य आजमाएंगे। ऐसे भी संकेत मिले हैं कि भाजपा के केंद्र में सत्ता में आने पर शर्मा को तोहफे में केंद्रीय मंत्री का पद दिया जाएगा।
इसी कड़ी में मुख्यमंत्री हुड्डा की करीबी रिश्तेदार और पूर्व मंत्री कृष्णा गहलावत समेत तीन नेताओ का भाजपा में जाना भी हरियाणा में कांग्रेस के लिए चिंता का विषय है। कांग्रेस की एक और पूर्व मंत्री संतोष सारवान भी भाजपा का दामन थाम चुके हैं। इसके अलावा कांग्रेस के एक और पूर्व मंत्री बहादुर सिंह के भी भाजपा में जाने की चर्चा है। पिछले दिनों हरियाणा के एक और बड़े नेता सांसद राव इन्द्रजीत सिंह सहित कई नेता पार्टी में शामिल हो चुके हैं।

जगदंबिका पाल ने छोड़ी कांग्रेस
राजनीति में कौन, कब, किधर जाएगा, यह इस बात पर निर्भर है कि वह अपनी घोषित नीतियों, विचारों और कार्यक्रमों के प्रति कितना वफादार है। सत्ता के लिए विचार बदलने में भी उसे गुरेज नहीं होता। कांग्रेस को अलविदा कह चुके डुमरियागंज से कांग्रेस सांसद जगदंबिका पाल के बारे में अब सलमान खुर्शीश कह रहे हैं, जहां माल, वहां पाल, लेकिन जगदंबिका पाल का दर्द दूसरा है। वह कह रहे हैं-कई दशकों तक कांग्रेस की सेवा की इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक साये की तरह कांग्रेस से जुड़ा रहा, पर अब घुटन महसूस हो रही है। पार्टी ने मुझे बहुत दिया, लेकिन अब अनुभवी और पुराने नेताओ को नजरअंदाज किया जा रहा है। कांग्रेस के उभरते नेतृत्व को अनुभवी नेताओ की जरूरत नहीं। बीच के नेता कार्यकर्ताओ और सांसदों को उन तक पहुंचने नहीं देते। उनकी मानें तो कई अन्य सांसद भी इसी तरह की घुटन महसूस कर रहे हैं और वे भी पार्टी छोड़ सकते हैं। उत्तर प्रदेश में असरदार मुख्यमंत्री रहे वीर बहादुर सिंह का कुनबा भी भाजपा का रुख करने की तैयारी में है।

एनडी तिवारी भी नाराज
जगदंबिका पाल अकेले कांग्रेसी नहीं है, जो पार्टी से नाराज हैं। नारायण दत्त तिवारी भी पार्टी से खफा है। खबर आ रही है कि वह समाजवादी पार्टी में शामिल होने और इस पार्टी के टिकट पर उत्तराखंड की नैनीताल सीट से लोकसभा चुनाव लडऩे की तैयारी में हैं। हालांकि अभी यह दावा सपा के प्रदेश सचिव एडवोकेट डा इलियास सिद्दीकी ने किया और तिवारी इस मुद्दे पर शांत हैं, लेकिन यह जगजाहिर है कि समाजवादी आंदोलन से जुडक़र सोशलिस्ट पार्टी से यात्रा प्रारंभ करने वाले तिवारी की सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ हाल के महीनों में घनिष्ठता बढ़ी है। 90 वर्षीय तिवारी पिछले डेढ़ दो वर्षों के दौरान सपा प्रमुख तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री दोनों से लखनऊ में कई बार मिल चुके हैं।

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