बुधवार, 28 मई 2014

राम भरोसे केदारनाथ के दर्शन

सत्यजीत चौधरी
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।
       महान कवि जयशंकर प्रसाद के कालजयी महाकाव्य कामायनी के चिंता सर्ग की ये दो लाइनें पिछले साल भी दिमाग में कौंधी थीं, जब जल प्रलय ने उत्तराखंड के एक बड़े हिस्से को झिंझोड कर मलबे में तब्दील कर दिया था। इस साल जब केदारनाथ की वाॢषक यात्रा शुरू हुई तो मेरे अंदर बैठा मनु (कामायनी का मुख्य चरित्र) बेचैन हो उठा। चल पड़ा हिमगिरि के उत्तुंग शिखर की तरफ, ताकि देख सके कि प्रकृति द्वारा लहूलुहान पुरुष अपने जख्मों को कितना भर पाया है। ढेरों सवाल थे। बाबा केदारनाथ की नगरी तक जाने वाले वे रास्ते और पुल क्या फिर बन पाए, जिन्हें बाढ़ बहा ले गई थी? वैकल्पिक पैदल मार्ग कैसा है और उसपर कैसी सुविधाएं हैं? जिन धर्मशालाओं और गेस्ट हाउसों को बाढ़ बहा ले गई थी, क्या वे फिर से आबाद हो पाए हैं? क्या तीर्थयात्रियों की ठहरने, खाने—पीने और स्वास्थ्य सेवा फिर से बहाल हो पाई है?

लौटने को मजबूर हुए कई यात्री
      यात्रा के पहले बड़े पड़ाव गुप्तकाशी से शुरू करता हूं। दरअसल मुझे किसी पत्रकार साथी ने बताया था की गुप्तकाशी में बायोमेट्रिक रजिस्ट्रेशन जरूर करा लेना। इसके बिना यात्रा संभव नहीं है। चार धाम यात्रा के लिए पहली बार बायोमेट्रिक रजिस्ट्रेशन अनिवार्य किया गया है, लेकिन हमें यहां इसका कोई प्रचार—प्रसार नहीं मिला । यहां आगे की यात्रा के बारे में बताने वाला भी कोई नहीं मिला। इसे सरकारी मशीनरी की नाकामी ही कहा जाएगा कि वह यात्रियों को पूरी सूचना उपलब्ध नहीं करा पाया। कई वृद्ध और कमजोर काया वाले तो यहां का हाल चाल जानने के बाद केदारनाथ जाने का साहस नहीं जुटा पाए। कई ने तो बाबा के दर्शन के बजाये रुद्रप्रयाग का रु ख कर बदरीनाथ के दर्शन को चले गए। कर्नाटक और गुजरात के कई श्रद्घालु जत्थे तो अज्ञात भयवश बिना दर्शन के वापस हो गए।

मेडिकल की खानापूरी
      बहरहाल हम गुप्तकाशी से चलकर सोनप्रयाग में रात्रि विश्राम हेतु रुके जिस से कि सुबह यत्रा शुरु कर सके । सुबह जैसे हम यात्रा शुरू करने के लिए चले हमें अचनाक रोक लिया गया गया और बताया गया कि बिना कराए आगे नहीं जा सकते। हम मेडिकल कैंप पहुंचें तो यहॉँ खानापूॢत के नाम पर हजारों यात्रियों के लिये एक डॉक्टर ब्लड प्रेशर नापता नजर आया । हालाँकि डॉक्टर साहब सबसे पुछ रहे थे कि आपको कोई बीमारी तो नहीं है, और बस हो गया आपका डॉक्टरी मुआयना ।
      मेडिकल  सटफिकेट लेकर एक जत्थे के साथ मैं भी बाबा के जयकारे लगाता आगे बढ़ चला। सोनप्रयाग से तकरीबन 1.5 किलोमीटर तक फ्री सरकारी जीप द्वारा ड्राप किय गया, यहॉँ से हमे पहली चढ़ाई गौरीकुंड के लिये शुरू करनी थी। जैसे—जैसे आगे बढ़ता गया, पैदल मार्ग विषमतर होता गया। पहले दिन सफर में लिनचोली से आगे बढऩे की हिम्मत नहीं हुई हालंकि ये रास्ते महज 15 किलोमीटर का ही था। मौसम और शरीर के साथ न देने के कारण अगले दिन कि यात्रा यहीं से शुरू करने क फैसला किया।

न घोड़े न ही डांडी कांडी
     लिनचोली से जैसे ही आगे की यात्रा शुरू की हमे अंदाजा हो चला था कि हमें किन कठिनाइयों का सामना करने पड़ेगा। इस दो किमी की खड़ी चढ़ाई पर जैसे सांस ने साथ छोड़ दिया। चलते—चलते पता चला कि यात्रा मार्ग पर घोड़े न मिलने से कई यात्री बिना दर्शन के ही लौट रहे हैं। सचाई तो यह है लिनचोली की खड़ी चढ़ाई पर मार्ग अभी घोड़े खच्चरों के चलने लायक नहीं बना है, एेसे में वृद्ध यात्री दर्शन किए बगैर ही लौटने को मजबूर हैं। हकीकत तो यह है कि गौरीकुंड से लिनचोली तक भी घोड़े यात्रियों को उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। अभी तक मेडिकल परीक्षण के बाद पांच सौ घोड़े-खच्चरों का ही रजिस्ट्रेशन हो पाया है, जिनमें से अधिकतर घोड़े-खच्चर सामान ढोने में लगे हुए हैं। पहले गौरीकुंड से केदारनाथ तक बड़ी संख्या में घोड़े, खच्चर व पालकी की व्यवस्था रहती थी, लेकिन आपदा के बाद अभी लिनचोली से आगे घोड़े-खच्चरों की आवाजाही शुरू नहीं हो पाई है, जबकि गौरीकुंड से लिनचोली तक भी यात्रियों को घोड़े नहीं मिल पा रहे हैं। सरकार ने प्रचार किया था कि लिंचौली से निशुल्क हेलीकॉप्टर सेवा होगी। साथ ही डांडी कांडी और खच्चर भी उपलब्ध कराए जाएंगे, लेकिन यहां ऐसा नहीं है।
लगा लोग मदद को पुकार रहे हैं
      बहरहाल हमने यात्रा जारी रखी, लेकिन चुनौतियां यहीं खत्म नहीं हुईं। बेस कैंप तक पहुंचने में लगा जान निकल जाएगी। रास्ते में न आदमी न जिंदगी के निशान। पहले भी इसी मौसम में इस रास्ते को नापा है। जत्थे के जत्थे मिलते थे। बम—बम भोले के जयकारे खून में रवानी भर देते थे। इस बार हमारे जत्थे के अलावा दूसरा कोई दल नहीं मिला। रास्ते में न कोई ढाबा न और न ही घोड़े-खच्चर वाले। रात गहराते ही बर्फीली हवा ने हड्डियों में घुसपैठ शुरू कर दी। ऑक्सीजन का घटता स्तर के चलते दिमाग सुन होने लगा। पिछले साल की प्राकृतिक आपदा के बारे में जो टीवी में देखा था या अखबारों में पढ़ा था, सब फिर से जीवंत होता प्रतीत होने लगा। वेगवती पहाड़ी नालों की गडगड़ाहट और मदद को पुकारती चीखें, गिरते भवनों की आवाजें कानों में गूंजने लगीं। इसके साथ ही एक साइकी हमें और परेशान किए थी कि हमें देखने और संभालने वाला कोई नहीं।

अल नीनो बना खलनायक
       जब दिल्ली से चला था तो संयोग या दुर्याेग से स्टेट इमरजेंसी आपरेशन सेंटर (एसईओसी) की तरफ से जारी उस अलर्ट पर निगाह पड़ गई थी, जिसमें कहा गया था कि देहरादून, उत्तरकाशी और रु द्र द्रप्रयाग जिलों के ऊंचाई वाले इलाकों में गरजने वाले वादल बन सकते हैं। इसके साथ ही तेज बौछारें पड$ने की भी चेतावनी थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि तेज बारिश हुई तो भूस्खलन की आशंका है। एसईओसी का अलर्ट मुख्य रूप से आपदा के प्रति बेहद संवेदनशील माने जाने वाले उत्तरकाशी, चमोली और रु द्रप्रयाग जिलों के लिए था, जहां चारों धाम स्थित हैं।
      बहरहाल, रास्ते में मामूली बूंदा—बांदी तो हुई, लेकिन तेज बारिश नहीं हुई, लेकिन दिल्ली लौटने के बाद 11मई को रिपोर्ट मिली कि बर्फबारी और बारिश के चलते केदारनाथ यात्रा स्थगित कर दी गई है। दरअसल यह अल नीनो का असर है, जिसकी वजह से देश के कई मैदानी हिस्सों में मौसम खुशगवार बना हुआ है और हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के ऊंचाई वाले स्थानों पर बर्फ पड़ रही है।
      केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी भीमाशंकर लिंग भी मानते हैं कि केदारनाथ यात्रा के लिए किए गए इंतजाम ‘नाकाफी’ हैं। 11मई को बर्फबारी के बाद उन्हें श्रदद्धालुआे को सलाह देनी पड़ी कि वे अपनी यात्रा कम से कम एक सप्ताह के लिए टाल दें। उनका कहना है कि यात्रा ‘जोखिम भरी’ हो सकती है। बीच—बीच में प्रशासन ने कई बार केदारनाथ यात्रा स्थगित की। 14 मई को केदारनाथ घाटी में दो फुट बर्फ जमने की सूचना के बाद यात्रा फिर दो दिन के लिए स्थगित करनी पड़ी। बारिश और हिमपात का असर बदरीनाथ की यात्रा पर भी पड़ा। बदरीनाथ यात्रा पर भी ब्रेक लगाना पड़ा।

मौसम अनुमान अनदेखे, चुनाव पर रही नजर
       पिछले साल केदारनाथ में आई आपदा के बाद बड़े पैमाने पर जानमाल की क्षति की एक बड़ी वजह आपदा प्रबंधन विभाग तथा मौसम विभाग के बीच तालमेल की कमी न होना बताया गया था। इस बार तो घबराए प्रशासन ने यात्रा के बाद बर्फबारी होते ही यात्रा स्थगित कर दी है, लेकिन पिछले साल मौसम विभाग द्वारा दी गई भारी बारिश की चेतावनी तथा यात्रा को कुछ दिन के लिए रोक देने के सुझाव को तब सरकार ने कोई तव्वजो नहीं दी थी। बाद में प्रदेश सरकार ने इस बात को स्वीकार भी किया। सामंजस्य की कमी की बात केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी साफ तौर पर मानी थी। दरअसल, देखा जाए तो चार धाम यात्रा को लेकर रावत की सरकार अति उत्साह की शिकार है। शासन ने पुणे मेट्रालॉजिकल समेत मौसम संबंधी अन्य कई एजेंसियों की चेतावनियों को अनदेखा किया। दरअसल रावत सरकार चुनाव कांग्रेस के लिए अधिक से अधिक सीटों के जुगाड़ में लगी रही। उसके लिए पहली प्राथमिकता चुनाव थे, जबकि उसी दौरान शुरू हो चुकी चारधाम यात्रा के संभावित खतरों पर उसकी नजर नहीं। चार मई को यात्रा शुरू होने से पहले मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बाकायदा प्रेस को बुलाकर ब्रीफ किया कि यात्रा का चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन अब जब बदरीनाथ और केदाननाथ यात्रा मार्ग पर हजारों यात्रियों को परेशानी झेलनी की रिपोर्ट मिलती है तो गुस्सा आता है। अब हालत यह है कि कभी स्थानीय प्रशासन यात्रा रोक रहा है, फिर बहाल कर रहा है। केदारनाथ और बदरीनाथ मार्ग पर बर्फबारी और बारिश की वजह से फिसलन और पत्थर गिरने से यात्रियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।
       
     बहरहाल मैं अपनी यात्रा की तरफ लौटता हूं। किसी तरह, बाबा के द्वार तक पहुंच गया। मंदिर के कुछ क्षतिग्रस्त हिस्सों को मरम्मत कर दुरु स्त कर दिया गया है, लेकिन मंदिर के आसपास प्रकृति के कोप के निशान यहां—वहां पसरे मिले। वहां के अधिकतर होटल, लॉज और धर्मशालाएं ध्वस्त हो गई थीं। अभी यहां काफी भवन आपदा की मार से बचे हुए हैं। कुछ भवनों को स्थानीय तीर्थ पुरोहितों ने साफ कराया है। लेकिन कुछ भवनों में अभी मलबा भरा हुआ है। श्री बदरीनाथ—केदारनाथ मंदिर समिति की सभी धर्मशालाएं ध्वस्त हो चुकी हैं। समिति ने किराये पर कुछ कमरे ले रखे हैं। प्रशासन ने भी कुछ भवनों का अधिग्रहण किया है। यात्रियों को इन भवनों और बेस कैंप व हेलीपैड में लगाए गए टेंटों में ठहराया जा रहा है। बाबा का प्रसाद भी समिति ही दे रही है। समिति और जीएमवीएन की तरफ से धाम में निशुल्क भंडारे की व्यवस्था की गई है।
        लेकिन स्थानीय व्यापारियों और तीर्थ पुरोहितों की सहभागिता नहीं होना सबसे ज्यादा खल रहा है। पूरे यात्रा रूट और धाम में स्थानीय रोजगार शून्य है। धाम मे न तो पूजा की थालियां है और न ही अन्य कोई दुकानें। तीर्थ पुरोहितों के संगठन केदारसभा के प्रमुख शंकर बगवाड़ी से बात करने की कोशिश करता हूं। वह स्थानीय लोगों को वापस लाने के लिए परेशान दिखे। उनका कहना है कि प्रशासन धाम मेें स्थानीय लोगों को दोबारा से व्यवसाय करने की अनुमति देता तो बेहतर रहता। यात्रियों को स्थानीय लोगों के भवनों में ठहराया जा रहा है। लेकिन जब व्यापारियों की बात आती है तो शासन सर्वेक्षण की बात कहता है। यह अच्छी बात है कि यात्रा शुरू हो गई। लेकिन रोजगार के बारे में भी सोचा जाना चाहिए। यात्रा मार्ग पर स्थानीय लोगों के ढाबों में भी प्रशासन का कब्जा है।

स्थायी के बजाये अस्थायी प्रबंध पर रहा जोर
       पिछले साल प्राकृतिक आपदा के दौरान जान—माल का जो नुकसान हुआ था, उसके लिए आपदा प्रबंधन तंत्र को भी काफी हद तक जिम्मेदार माना गया था। कई एजेंसियों ने भारी बारिश की चेतावनी दी थी, लेकिन तमाम अलर्ट नजरंदाज किए गए। दरअसर संकट की भयावहता को भांपने में शुरुआती चूक की कई। एेसी आपदा के लिए पहले से न तो कोई ब्लूप्रिंट बना था और न ही एक्शन प्लान। इस वजह से राहत और बचाव कार्यों में देर हुई। इसका खमियाजा यात्रियों और मुकामी लोगों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। इस समय भी जो व्यवस्थाएं हैं, उनमें अस्थायी अधिक हैं। दरअसर आपदा के बाद विजय बहुगुणा सरकार को जो समय केदारनाथ यात्रा मार्ग को बनाने, पुनर्वास और पुनर्निमाण में लगाना चाहिए था, वह सत्ता को बचाए रखने की राजनीति में व्यतीत हो गया। मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत ने कमान संभालने के बाद जो काम हुए, वे स्थायी नहीं हैं। हरीश रावत को एक साथ कई चीजों पर फोकस करना पड़ा। लोकसभा चुनाव की तैयारियों के बीच पार्टी में बगावती तेवर और पुनर्निर्माण और पुनर्वास के काम। शायद यही वजह है कि सरकार की काम चलाऊ व्यवस्था को लेकर यात्री डरे हुए हैं। सरकार केदारनाथ और बदरीनाथ में पुनर्निर्माण पर अब तक लगभग 50 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है, लेकिन व्यवस्थाएं कहीं नजर नहीं आ रही हैं।

बायोमेट्रिक पहचानपत्र के लिए इंतजाम नाकाफी
     पिछले साल तीर्थ यात्रियों का पंजीकरण करने की कोई व्यवस्था नहीं था। इस वजह से राहत और बचाव दल को पता नहीं चल पाया कि कहां कितने लोग फंसे हो सकते हैं। इस बार सरकार ने गलती सुधारी है। लेकिन बायोमेट्रिक कार्ड बनाने के लिए पर्याप्त संख्या में शिविर न होने से यात्रियों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

मलबा बना मुसीबत
     केदारपुरी में स्थित मलबा अब भी शासन—प्रशासन के गले की फांस बना हुआ है। यात्रा पर जाने वाले तीर्थयात्रियों को अब भी मलबे से बुरी तरह दुर्गध का सामना करना पड़ रहा है। मलबा हटाने को लेकर प्रशासन अब तक दुविधा में है। सरकार ने केदारनाथ मंदिर की सुरक्षा और मलबा व बोल्डर हटाने के लिए जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई) से सर्वे कराया था। जीएसआई ने अपनी रिपोर्ट में कई सुरक्षात्मक उपाय सुझाए हैं, लेकिन मलबा हटाने को लेकर अब तक स्थिति स्पष्ट नहीं हो सकी है। जीएसआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मंदिर के 1 मीटर के दायरे में अब कोई भी नया निर्माण न हो। जिलाधिकारी राघव लंगर के अनुसार रिपोर्ट की समीक्षा की जा रही है और मलबा हटाने के विषय में उच्चाधिकारियों से बातचीत चल रही है।

सरकार की तैयारियों के दावे
-यात्रा क्षेत्रों के साथ ही आपदा संभावित इलाकों में चेतावनी प्रणाली को तेज बनाने के लिए रडार लगाए जाएंगे
-भूकंपीय क्षेत्रों में पुलिस ब्रिगेड के अलावा बुल्डोजर भी मौजूद रहेंगे
-आपदा राहत बल के सदस्यों के साथ आईटीबीपी के जवान भी तैनात रहेंगे
-दूरसंचार के मामले में आधुनिक प्रणाली का प्रबंध किया गया है
-पेट्रोलिंग और वॉच टावर के जरिये यात्रा रूट पर सतत नजर रहेगी

दुश्वारियां जो यात्री झेल रहे हैं

-केदारनाथ यात्रा के दौरान हमें कहीं भी रडार के दर्शन नहीं हुए।
-यात्रियों को भूकंपीय क्षेत्रों के बारे में बताने की कोई व्यवस्था नहीं की गई। कुछ स्थानों पर पुलिस वालों के कैंप दिखे जरूर, लेकिन आपदा राहत बल या बुलडोजर कहीं नदारद थे।
-दूरसंचार के मामले में आधुनिक प्रणाली का कहीं अता—पता नहीं था। हमें ऐसा
-रास्ते में हमें कोई पेट्रोलिंग पार्टी नहीं मिली। टावर शायद कागजों में खड़े किए गए थे।

एक नजर में केदारनाथ धाम
    गिरिराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है देश के बारह ज्योतिॢलंगों में सर्वाेच्च केदारेश्वर ज्योतिॢलंग। केदारनाथ धाम और मंदिर तीन तरफ पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदारनाथ, दूसरी तरफ है 21 हजार 60 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ है 22 हजार 70 फुट ऊंचा भरतकुंड।
पांच नदियों का संगम
केदारनाथ में तीन नदियों का संगम भी है। मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ का अब अस्तित्व नहीं रहा लेकिन अलकनंदा की सहायक मंदाकिनी आज भी मौजूद है। इसी के किनारे है केदारेश्वर धाम।
विशाल शिलाखंडों से मंदिर निर्माण
    उत्तराखंड के सबसे भव्य शिव मंदिर केदारेश्वर कटवां पत्थरों के विशाल शिलाखंडों को जोडक़र बनाया गया है। ये शिलाखंड भूरे रंग के हैं। मंदिर लगभग छह फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है। इसका गर्भगृह अपेक्षाकृत प्राचीन है जिसे अस्सीवीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है।
विशाल छत एक ही पत्थर की
     मंदिर के गर्भगृह में अर्धा के पास चारों कोनों पर चार सुदृढ़ पाषाण स्तंभ हैं, जहां से होकर प्रदक्षिणा होती है। अर्धा, जो चौकोर है, अंदर से खोखली है और अपेक्षाकृत नवीन बनी है। सभामंडप विशाल एवं भव्य है। उसकी छत चार विशाल पाषाण स्तंभों पर टिकी है। विशालकाय छत एक ही पत्थर की बनी है। गवाक्षों में आठ पुरुष प्रमाण मूर्तियां हैं, जो अत्यंत कलात्मक हैं।
       पिछले साल आई प्रलयंकारी बाढ़ ने केदार घाटी को नेस्तनाबूद कर दिया, लेकिन मंदिर को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंची। वजह साफ है। मंदिर का निर्माण मजबूत पत्थरों से किया गया है। 85 फुट ऊंचा, 187 फुट लंबा और 80 फुट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर का ढांचा। इसकी दीवारें 12 फुट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर को छह फुट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। यह आश्चर्य ही है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी। खासकर यह विशालकाय छत कैसे खंभों पर रखी गई। पत्थरों को एक-दूसरे में जोडऩे के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मजबूती और तकनीक ही मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है।
मंदिर का निर्माण इतिहास
     पुराण कथा अनुसार हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिॢलंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

jai ho baba kedarnath ji .....