शनिवार, 17 मई 2014

अब मोदी होने का मायने-मतलब 

सत्यजीत चौधरी
    तमाम पूर्वानुमानों को ध्वस्त करते हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रचंड बहुमत लाकर साबित कर दिया कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लडऩे का उसका फैसला एकदम सही था। इस चुनाव में जनाकांक्षाके प्रतीक बनकर उभरे मोदी ने जीत के लिए जान लड़ा दी और नतीजे अनुकूल से कहीं ज्यादा आए। चुनाव के दौरान और नतीजों के बाद मोदी लार्जर देन लाइफ बनकर उभरे। अब मोदी की बड़ी तस्वीर से कहीं बड़ी वे उम्मीदें हैं, जो पूरे देश ने लगा रखी हैं। यानी अच्छे दिन की आस, जिसका वादा पार्टी और मोदी प्रचार के दौरान करते रहे हैं।
       पहले हमें जनाकांक्षा को समझना होगा। याद करें अन्ना का आंदोलन। 2011 में इस आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हुई और 2012 तक आंदोलन जवान हो गया। लोग सिस्टम से खफा थे। भ्रष्टाचार, विकास, महंगाई, नक्सलवाद, महिलाओं की सुरक्षा, कश्मीर, सडक़, बिजली और पानी जैसे मुद्दों पर सरकार की चुप्पी युवाओं से भरे भारत को निराश कर रही थी। बस यही टर्निंग प्वाइंट था, जिसे भाजपा और संघ ने भांपा और उतार दिया मोदी को मैदान में। कांग्रेस लोगों के गुस्से को समझ ही नहीं पाई। आंदोलन में अरविंद केजरीवाल के कूदने और उसे राजनीतिक स्वरूप देने की कोशिशों के चलने अन्ना मुहिम से अलग हो गए। दिल्ली के चुनाव में के केजरीवाल ने अन्ना की वैचारिक विरासत को कैश कर लिया। फिर अपने ही ऊंटपटांग फैसले के चलते हाशिये पर चले गए। मैनेजमेंट के माहिर मोदी चुपचाप पब्लिक की पल्स को समझते रहे। फिर 2013 में जब आम चुनाव का ऐलान हुआ तो मोदी पूरे होमवर्क के साथ मैदान में कूद पड़े। 2जी—3जी घोटालों, कॉमवेल्थ घपले और कोलगेट स्कैम की पर्तों को उघाड़ते मोदी ने महंगाई और अव्यवस्था से परेशान लोगों के सामने अन्ना के दर्द को अपनी शब्दावली के साथ पेश किया। लोगों को लगा कि मसीहा आ गया है।
       सियासत का महीसा वाकई आ चुका है, लेकिन उसके सामने अब पह़ाड़-सी चुनौतियां हैं। उसे मुर्दा पड़े सिस्टम में जान फूंकनी है। करप्शन की कमर पर वार करना है। देश के ढांचागत विकास को व्यवस्थित करना है। स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, बाजार, निवेश और कानून—व्यवस्था जैसे बुनियादी चीजों पर ध्यान देना होगा।
      मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी वैश्विक पृष्ठभूमि में देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना। इस लिहाज से देखा जाए तो तीन बड़े मुद्दे हैं, जिसने पार पाना होगा। पहला आॢथक विकास दर में गिरावट को थामना और वित्तीय घाटे पर लगाम कसना कारोबार के लिए पूरे देश में माहौल बनाना।
      मोदी को विरासत में ऐसी अर्थव्यवस्था मिली है, जिसमें विकास दर ज्यादातर समय आठ प्रतिशत के आसपास भटकती रही। पिछले तीन सालों के दौरान वृद्धि दर घटकर लगभग आधी हो गई है। मनमोहन इसके लिए वैश्विक आर्थिक हालात को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। वह बताते रहे कि इसी अवधि में चीन की आॢथक वृद्धि दर भी घटी है, लेकिन सचाई तो यह है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आधार (लगभग 150 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष) चीन के सकल घरेलू उत्पाद आधार का सिर्फ एक-चौथाई है, इसीलिए भारत की आॢथक वृद्धि का आधा होना कहीं ज्यादा कष्टकारी है।
       यहां गौर करने लायक बात यह है कि यूपीए सरकार का नेतृत्व एक कुशल पूर्व नौकरशाह और अर्थशास्त्री कर रहा था। देश की अर्थव्यवस्था की पटरी पर रखने में प्रणब मुखर्जी ने महती भूमिका अदा की। बाद में पी चिदंबरम ने यह दायित्व निभाया। मोदी को विकास दर में वृद्धि के लिए बड़ी योजना बनानी होगी। इसके लिए उन्हें कुशल अर्थशास्त्री की टीम की दरकार होगी।
बड़ी चुनौती वित्तीय घाटा
      दूसरी बड़ी चुनौती है वित्तीय घाटा। घाटे पर कांग्रेस कहती आई है कि भारत में गरीबी की मौजूदा स्थिति को देखते हुए सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले बड़े खर्च से बचा नहीं जा सकता है। यहां याद दिला दें कि अपने कार्यकाल के अंतिम वर्षों में अटल सरकार ने वित्तीय और राजस्व घाटे को नियंत्रित करने के लिए एक कानून बनाया था, लेकिन कांग्रेस ने उस पर अमल नहीं किया। मोदी संकेत दे चुके हैं कि सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले खर्च को लेकर वह अलग राय रखते हैं। मोदी मंत्रालय का आकार छोटा कर और समान प्रकृति के विभागों को एक बड़े महकमे में मर्ज कर सरकार के खर्च में कमी ला सकते हैं। चीन अगर अर्थव्यवस्था में आगे है तो इसका एक बड़ा कारण वहां सरकार के कामकाज में किफायत है। अदना कर्मचारी से लेकर टॉप नौकरशाह कैंटीन में एक तरह का खाना खाते हैं। कर्मचारी और अधिकारी पेट्रोल बचाते हैं और साइकिलों से ऑफिस आते हैं। मंत्रियों और अधिकारियों की सुरक्षा पर बहुत कम पैसे खर्च होते हैं। अधिकारियों के ऑर्डरली और घरेलू नौकर जैसी व्यवस्था न के बराबर है।
नदियों का प्राकृतिक दोहन
     मोदी नदियों पर जोर दे रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की नदी जोड़ो योजना को वह फिर लाना चाहते हैं। साथ ही मोदी नदी परिवहन जैसे नए विचार भी ला रहे हैं। वह नदियों के प्राकृति दोहन (जिससे बिना नुकसान फायदा उठाया जा सके) के पक्ष में हैं। जहां तक नदी जोड़ो योजना को फिर से शुरू करने का सवाल है, भाजपा में ही इसे लेकर मतभेद हैं। हाल में मेनका गांधी तर्कों के आधार पर कह चुकी हैं कि नदियों को जोडऩे की योजना आत्मघाती कदम होगा, क्यों हर नदी का अपना चरित्र, मछलियां, जीव—जंतु होते हैं। उनका पीएच अलग होता है। मोदी को इस योजना का फिर से मूल्यांकन करना होगा। मोदी नीदर्सलैंड की तरह पवन चक्कियां लगाने की भी योजना बना रहे हैं।
कानून—व्यवस्था का सवाल
     तीसरी समस्या है ऐसे कानून बनाने की जो अर्थव्यवस्था को फलने—फूलने के पूरे मौके दे, जिसपर मोदी बहुत ज्यादा जोर देते रहे हैं। मोदी चुनावी रैलियों में कहते रहे हैं कि वह कारोबारियों के हितों वाली नीतियों के समर्थक हैं, लेकिन दिल्ली में समस्या ये रही है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ऐसे कानूनों पर अपने सहयोगियों को भरोसा दिलाने में कामयाब नहीं रहे हैं। एक मुद्दा ये भी है कि भाजपा खुद सैद्घांतिक रूप से ऐसे कुछ सुधारों के फिलाफ है, जिसमें खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश भी शामिल है। मोदी को कारोबारी माहौल के लिए पूरे देश में एक ऐसा सुरक्षा ढांचा बनाना होगा, ताकि सभी प्रदेशों में निवेश के मौके पैदा हों और व्यापार में माफियातंत्र का दखल रोका जा सके। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार, जहां से मोदी ने बम्पर ढंग से वोट की फसल काटी है, अपराध के चलते पिछड़े हुए हैं। रेलवे से लेकर सार्वजनिक निर्माण में बाहुबलियों का कब्जा है। मोदी को ऐसा राष्ट्रीय कानून बनाना होगा, जिसे राज्यों में लागू कर माफियातंत्र पर लगाम कसी जा सके।
सामाजिक क्षेत्र में सुधार
      अर्थव्यवस्था को छोड़ दें तो भारत की समस्याएं ढांचागत ज्यादा हैं। मिसाल के तौर पर स्वास्थ्य और शिक्षा को राष्ट्र की तरफ से होने वाले खर्च में पर्याप्त हिस्सेदारी मिलती है, लेकिन इन क्षेत्रों में दिखने वाली उपलब्धियां बहुत कम हैं। गुजरात समेत पूरे देश में इन क्षेत्रों में सरकारी योजनाओं को जिस तरह से लागू किया जाता है, उसकी गुणवत्ता भी बहुत अच्छी नहीं है। गुजरात के अस्पतालों और स्कूलों की हालत भी देश के बाकी राज्यों के मुकाबले बेहतर नहीं कही जा सकती है। गरीबी और महंगाई के दो पाटों के बीच पिस रही जनता को गुणवत्ता वाली शिक्षा और कम खर्च वाली स्वास्थ्य सेवा देकर मोदी को अपना वादा पूरा करना होगा।
विदेश नीति के चैलेंज  
    मोदी की जीत के साथ जिन दो देशों ने उन्हें अपने यहां आने का न्योता भेजा है, वे हैं अमेरिका और पाकिस्तान। मोदी को पाकिस्तान और चीन को लेकर अपना रुख नरम करना होगा। इस बारे में अब तक उनकी यही राय सामने आई है कि भारत अपने रुख को जितना सख्त करेगा, पड़ोसियों से उतने ही बेहतर तरीके से निपट पाएगा। राजनीतिक रैलियों और जमीनी हकीकत में बहुत फर्क होता है। अगर आज पाकिस्तान के साथ रिश्ते कुछ बेहतर हैं तो इसका श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी को भी जाता है। बस सेवा और दोनों देशों के बीच व्यापार जैसे छोटे-छोटे कदमों ने मधुर रिश्तों में लंबी डगर तय की। मोदी अगर पाकिस्तान के साथ बातचीत के रिश्तों को फिर से ट्रैक पर ले आए तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। भारत आर्थिक मोर्चे पर चीन का मुकाबला कर सकता है, लेकिन इसके लिए भारत को पड़ोसियों से दोस्ताना रिश्ते बनाने होंगे। कुछ भटके हुए कश्मीरियों को मुख्य धारा में लाना होगा और धारा 370 पर पुनर्विचार जैसे जुमले उछालना फिलहाल बंद करना होगा। पाकिस्तान के साथ अगर तनाव कम करने में मोदी सफल रहते हैं तो इससे रक्षा बजट बढ़ाते रहने की होड़ खत्म होगी और दोनों देशों को विकास के पथ पर आगे चलने का मौका मिलेगा।
भ्रष्टाचार पर नियंत्रण सबसे बड़ी चुनौती
        मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती भ्रष्टाचार के खात्मे की होगी। यूपीए के घटक दलों के नेताओं और रॉबर्ट वाड्रा के भ्रष्टाचार की मिसालें दे-देकर सत्ता के शिखर पर पहुंचे मोदी के लिए अपनी सरकार में करप्शन पर नजर रखने के साथ ही देशभर की अफसरशाही में घुन की तरह लगे इस कलंक को मिटाने जी—तोड़ मेहनत करनी होगी। लोकपाल कानून को पूरी तरह अमली जामा पहनाना होगा। इसके अलावा और भी कड़े कानून बनाने होंगे।
युवा शक्ति को समझना होगा
      इस चुनाव में युवा शक्ति ने मोदी को स्वीकार किया। देश के युवाओं के पास बहुत क्षमता है। उनके मन में अपने और देश के प्रति ऊंची आशाएं भी हैं। मोदी को उनके लिए रोजगार के मौके जुटाने होंगे। आज का युवा अपनी उम्र से कहीं अधिक परिपक्व है। वह तेजी से प्रतिक्रिया कर रहा है। बदलाव चाह रहा है। अपने अधिकारों को जानता है और दायित्वों के प्रति भी सचेत है। मोदी को देश के विकास को युवा शक्ति से जोडऩा होगा।
सभी को साथ लेकर चलना होगा 
    16 मई को नतीजे आने के बाद अहमदाबाद में मोदी ने देश से वादा किया कि वह सबको साथ लेकर चलेंगे। दरअसल मोदी की छवि से गुजरात दंगों का अक्स नहीं मिट रहा है। अब एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें राजधर्म को निभाकर खुद को एक अभिभावक साबित करना होगा। अब तक अल्पसंख्यकों का इस्तेमाल सिर्फ वोट बैंक के तौर पर किया जाता रहा है। उनके प्रति बेहतर रवैया होना चाहिए। उनकी स्थितियां सुधरें तो उनका इस्तेमाल करने वाले उनके तथाकथित नेताओं के चेहरे भी बेनकाब हो जाएंगे।

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