मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

बारिश और वायुमंडल के संकेत

सत्यजीत चौधरी
   भारतीय वायुमंडल के ऊपर छाया वायु प्रदूषण पिछले कई साल से मानसून को चोक कर रहा है और अगर इसकी रफ्तार ऐसी रही तो आने वाले कुछ सालों में हम बारिश को तरस जाएंगे। कुछ साल पहले वैज्ञानिक चेता चुके हैं कि भारत में तेजी से बढ़ रहे वायु प्रदूषण के चलते क्लाउड बेल्ट यानी बादलों की पट्टी दक्षिणी गोर्लाद्ध की तरफ खिसक रही है। यह क्रम ऐसे ही जारी रहा तो जल्द ही उत्तर भारत में मानसून कम मेहरबान होगा और दक्षिण भारत और श्रीलंका में जमकर बारिश होगी। 
ग्लोबल वार्मिंग के खतरों और अंजाम से लगातार आगाह कर रहे अमेरिका के प्रिंसटन विश्वविद्यालय के यी मिंग ने इस बारे में जो खाका खींचा है, वह खासा डरावना है। मिंग के मुताबिक पिछले पांच दशकों से भारत में मानसून में पांच प्रतिशत की कमी आई है। युूएस जनरल साइंस पत्रिका में प्रकाशित मिंग और उनके सहयोगियों की रिपोर्ट में कहा गया है कि उद्योग—धंधों से निकलने वाले धुएं और अन्य गैसों के अलावा वाहनों से होने वाले प्रदूषण ने भारत के वायुमंडल के स्वरूप को बिगाड़कर रख दिया है।
हालांकि मिंग की रिपोर्ट से इतर कुछ वैज्ञानिकों का आकलन है कि बढ़ते वायु प्रदूषण से पैदा हुई स्थितियों में सामान्य से ज्यादा बारिश होने की आशंका है। मिंग की रिपोर्ट बताती है कि एयरोसोल्स या प्रदूषण के कर्ण ऊर्जा के उस इंजन को प्रभावित करते हैं जो ग्रीष्मकालीन मानसून के लिए जिम्मेदार होता है। 
पिछली कुछ शोधों में दावा किया गया है कि ग्रीन हाउस गैसेस की वजह से हो रही ग्लोबल वार्मिंग की वजह से भारतीय उपमहाद्वीप का ऊपरी वायुमंडल गर्म हो रहा है और नतीजे में भारी बारिश होने की आशंका है, लेकिन मिंग और उनके सहयोगी इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि प्रदूषण से पैदा एयरोसोल्स या कर्ण एक तरह से आवरण का काम करेंगे, जिससे वर्षा होने की तमाम प्रक्रिया प्रभावित होगी।
ग्लोबल वार्मिंग के कुछ और असर भी बारिश को प्रभावित कर रहे हैं। साइंस मैगाजीन नेचर क्लाइमेट चेंच के ताजा अंक में इस बात का खुलासा किया गया है कि महासागर धरती को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए दशकों से अपने भीतर गर्मी अवशोषित कर रहे हैं। इस बारे में किए गए अध्ययन से पता चला है कि महासागरं में 1000 फीट से अधिक की गहराई में काफी समय से गर्मी अवशोषित ह रही है।
पत्रिका ने नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फियरिक रिसर्च (एनसीएआर) के गेराल्ड मेहल के हवाले से बताया है कि हम भविष्य में समयांतराल पर ग्लोबल वार्मिंग के भयानक रूप देखेंगे। गेराल्ड का कहना है कि इस अवधि के एक दशक में खत्म हो जाने की संभावना है और ताप वृद्धि फिर से शुरू हो जाएगी। 
पृथ्वी तेजी से गर्म हो रही है। पिछले सौ साल के आंकड़ों के अनुसार 2000 से 2010 का दशक सबसे गर्म दशक था, जबकि 1998 शताब्दी का सबसे गर्म वर्ष था।
वर्ष 2000 से उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है और उपग्रह से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि धरती को प्राप्त होने वाली सूर्य किरणें एवं उसके उत्सर्जन का अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे पता चलता है कि यह गर्मी कहीं और अवशोषित हो रही है।
इस शोध से भी मिंग के दावे को बल मिलता है। हालांकि भारत के विज्ञानी मिंग के शोध नतीजों से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस के दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज के प्रमुख जयरामन श्रीनिवासन का मानना है कि इस बारे में अभी और शोध किये जाने की जरूरत है। उनका कहना है कि एयरोसोल्स जटिल होते हैं। वे कितना प्रभाव डालते हैं, इसका निर्धारण इस बात से होता है कि वे बने कि पदार्थ से हैं।

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