शनिवार, 28 जनवरी 2012

न कोटा, न अन्ना, यहां का मुद्दा सिर्फ गन्ना

सत्यजीत चौधरी
 उत्तर प्रदेश की चुनावी रणभेरी में एक ओर जहां मायावती तमाम दागी मंत्रियों को हटाकर अन्ना हजारे के नक्शे कदम पर चलने का प्रयास कर इस बार भी  लखनऊ की कुर्सी पर कब्जा बरकरार रखने को बेताब हैं तो दूसरी ओर समाजवादी पार्टी भी  तमाम भरष्टाचार के मामलों के साथ आगे आ रही है। कांग्रेस और भाजपा भी  इन्हीं मुद्दों के इर्द गिर्द अपनी राजनीतिक चाल चल रहे हैं लेकिन भष्टाचार और अन्ना से इतर कुछ गन्ना पैदावार वाले क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहां का मुख्य मुद्दा गन्ना है। उनके गन्ने के दाम पर लगातार राजनीतिक रोटियां सेंकी जाती हैं। इस बार भी कुछ ऐसे ही प्रयास किए जा रहे हैं।
    गन्ना और किसान की चिंता, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उत्तर प्रदेश में गन्ना कृषि वाले क्षेत्रों में लंबे समय से गन्ना राजनीतिक केंद्र में रहा है। हालांकि देशभर में अन्ना की आंधी अपने जोर शोर से चल रही है लेकिन सहारनपुर और आसपास के तमाम क्षेत्रों में अन्ना के बजाए गन्ना राजनीति का पहलू है। स्थानीय प्रभावशाली लोग भी कांग्रेस के मुस्लिमों को आरक्षण देने या फिर दूसरे विकास कार्यों के वादों के बजाए गन्ना मूल्य को लेकर ज्यादा संजीदा दिखाई दे रहे हैं। इसके अलावा यहां के किसानों की दूसरी प्रमुख समस्या उनके माल की ब्लैक माकेर्टिंग की है। यहां किसानों का 600 रुपए मूल्य का माल ब्लैक मार्केट में 1500 रुपए तक बेच दिया जाता है। इसकी वजह से किसान आज भी समस्याओं से ग्रसित हैं।
अब अगर राजनीतिक पार्टियों की बात करें तो इन क्षेत्रों में कांग्रेस के पास खाने को कुछ नहीं है जबकि रालोद, समाजवादी पार्टी, बसपा और भाजपा को लेकर इस बार मतदाता भी पसोपेश की स्थिति से गुजर रहे हैं। कांग्रेस और रालोद का गठबंधन होने के बाद इस बार गन्ना कृषि बहुल क्षेत्रों में भी किसानों तक हाथ का प्रचार व प्रसार दिख रहा है। रालोद के बहाने इस बार कांग्रेस के लिए किसानों से वोट मिलने की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं लेकिन मैदान में मौजूद दूसरी राजनीतिक पार्टियां भी गन्ना राजनीति पर तीर चलाने को बेताब हैं। चंूकि वर्तमान बसपा सरकार की ओर से गन्ना किसानों के हित में ज्यादा योगदान पूर्ण कार्य नहीं किए गए, इसलिए बसपा गन्ना राजनीति से कुछ किनारा सा ही करके चल रही है जबकि दूसरी पार्टियां इस बार इस गन्ना मूल्य के दम पर अपना वजूद तलाश रही हैं। मुस्लिम वोट बैंक के सहारे यूपी की सत्ता पर राज कर चुकी समाजवादी पार्टी का मुस्लिम फंडा इस बार भी किसानों को सुहाता हुआ नहीं दिख रहा है। एक किसान नेता के मुताबिक हर बार आरक्षण के नाम पर वोट लेने का सिलसिला इस बार नहीं चलेगा। अगर सपा उनके गन्ना मूल्य को लेकर राजनीति से हटकर कुछ जमीनी काम करे तो वह कुछ सोच सकते हैं। जबकि भाजपा पहले रामजन्म भूमि मामले को लेकर सत्ता में आने के बाद से यूपी में अपना पैंतरा तलाश रही है। यूपी में भाजपा के लिए भले ही उमा भारती खेवनहार बनकर आई हों लेकिन किसानों के मामले को लेकर इस बार भी  भाजपा को रुख स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा है। कांग्रेस ने रालोद का हाथ पकड़कर आगे बढ़ृने की योजना बनाई है। अब देखना यह है कि यह संभावनाएं और अन्ना की आंधी के बीच चलती गन्ने की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठता है। 

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