रविवार, 15 जनवरी 2012

प्रत्याशी जी सावधान, जासूस पीछे लगा हो सकता है!

सत्यजीत चौधरी 
  कहते हैं जो जीता वही सिंकदर। पराजय शब्द कोई भी  अपनी डिक्शनरी में नहीं रखना चाहता। राजनीति कर अपनी रोजी—रोटी चलाने वाले नेता तो बिल्कुल भी  नहीं। उत्तर प्रदेश में चुनाव की इस बेला में प्रत्याशी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए तरह—तरह के टोटके आजमा रहे हैं। इस हाईटेक दौर में कई नेताओं ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स फेसबुक और ट्वीटर पर अकाउंट बनाकर अपनी प्रोफाइल से वोटरों को रिझा रहे हैं। कुछ ने और आगे जाकर जासूसों का सहारा ले लिया है। यानी विरोधियों की कमियों और ताकत का पता लगाने के साथ अपनी खामियों को दुरुस्त करने के लिए डिटेक्टिव एजेंसियों का सहारा ले रहे हैं।
चुनाव जीतने के लिए साम—दंड-भेद सबका सहारा लिया जा रहा है। सियासत के इस खेल में नैतिकता और अनैतिकता का कोई मतलब भी नहीं रह गया है। पता चला है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई प्रत्याशी अपनी प्रतिद्वंद्वी को चुनाव आयोग के ट्रैप में लाने के लिए जासूसों की मदद ले रहे हैं। मसलन जासूसों से इस बात का पता लगवाया जा रहा है कि कहीं उनका प्रतिद्वंद्वी मातदान से पहले वितरण के लिए शराब तो नहीं इकट्ठा करवा रहा है, ताकि चुनाव आयोग तक सटीक कम्प्लेन पहुंचाई जा सके। जासूस इस बात का भी  पता लगा रहे हैं कि उनके नेताजी के प्रतिद्वंद्वी के कमजोरियां क्या—क्या हैं। मसलन उनके विवाहेत्तर रिश्ते, आय के स्रोत, बाजार वसूली, चंदा उगाही, अपराधियों से संबंध। साथ ही जासूस प्रतिद्वंद्वी के पॉलिटिकल प्रोफाइल को भी  खंगाल रहे हैं। किस क्षेत्र में उसके अपने आसामी की क्या हवा है और विरोधी में कितना दम है। कुल मिलाकर जासूसों का मेन टारगेट होता है कि इलेक्शन से पहले अपने मुवक्किल के विरोधी की ऐसी कमजोरियों का पता लगाना, जिससे उसकी पब्लिक इमेज को खराब किया जा सके। 
जासूसों का काम प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार की हर गतिविधि की डिटेल खंगालना करना होता है। साथ ही उसके द्वारा अपनाई जाने वाली इलेक्शन कैंपेनिंग की प्लानिंग को भी  हायर करने वाले नेता तक पहुंचाना होता है।
डिटेक्टिव एजेंसियों के ये जासूस हर तरह से हाईटेक होते हैं। स्पाई कैमरों, माइक्रोफोन, लैपटॉप, कंप्यूटर में ये एक्सपर्ट होते हैं। साउथ दिल्ली में अपनी डिटेक्टिव एजेंसी चलाने वाले कर्नल डोगरा ने बताया कि चुनाव में उनकी एजेंसी के पास काम बढ़ जाता है। यूपी चुनावों में भी  उनकी डिटेक्टिव एजेंसी को कुछ उम्मीदवारों ने जासूसी का काम सौंपा है। जासूसी की फीस प्रतिदिन के हिसाब से तय होती है। यह रकम दस से लेकर तीस हजार तक हो सकती है। अगर जासूस कुछ एक्सक्लूसिव खोज निकालने में कामयाब हो जाता है तो उसकी फीस अलग ली जाती है। 
दिल्ली में एक और आईएनएस डिटेक्टिव एजेंसी है। इसके कर्त्ता-धर्त्ता प्रदीप महाजन बताते हैं कि जासूसी थ्री स्टेप में की जाती है। नंबर एक- इलाके का सर्वेक्षण। टिकट कंफर्म होने से पहले प्रतिद्वंद्वी के चुनाव क्षेत्र में उसकी तैयारियों की डिटेल तैयार करना। उसके इलाके में सर्वे कर उसकी पब्लिक इमेज के बारे में पता करना। ऐसी तमाम जानकारी अपने क्लाइंट के लिए जुटाना। इसके बाद नंबर दो के तहत चुनाव अभियान शुरू होने पर मुवक्किल के प्रतिद्वंद्वी की टीम में शामिल होकर उसके प्रचार के तरीकों सूची तैयार करना। नंबर तीन के तहत बूथ प्लानिंग की डिटेल जुटाना। पोलिंग बूथ पर प्रतिद्वंद्वी या प्रतिद्वंद्वियों की क्या प्लानिंग रहने वाली है। बूथ पर उनकी कोर टीम किस तरह से मतदाताओं से वोट डलवाने का काम करेगी।
डिटेक्टिव एजेंसियां पूरी तरह से अपने काम में ईमानदारी निभाती हैं। उनके पास जो भी डिटेल होती है, वह उसे जब तक सार्वजनिक नहीं करतीं, जब तक कि उन्हें हायर करने वाले उम्मीदवार की तरफ से उस पर ओके की मुहर नहीं लग जाती है।

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