गुरुवार, 5 जनवरी 2012

माया की ‘माया’ से बचना आसान न होगा

सत्यजीत चौधरी
उत्तराखंड में चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है। उत्तर प्रदेश के लिए चार दिन बाद हो जाएगी। यह एक संसदीय औपचारिकता है। बात यह है कि दोनों राज्यों में चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। मुद्दे रूपी मोहरे चले जा रहे हैं। चुनाव को लेकर पार्टियां उत्साह में है, लेकिन इस बार चौतरफा चल रहे सीईसी के डंडे से सहमी हुई भी हंै। लाख कोशिश है कि आचार संहिता का आदर बना रहे, लेकिन चूक हो ही जा रही है। कांग्रेस पहले ही मिशन यूपी को लेकर जी-जान से जुट चुकी है तो उत्तराखंड में भाजपा के हौसले पहले से ही खंडूरी की सरकार की पाक-साफ छवि की वजह से बुलंद दिखाई दे रहे हैं। हालांकि कांग्रेस या भाजपा की ओर से केवल ऊपरी तौर पर सोच बदली और रखी जाती है जबकि बसपा का जमीनी जुड़ाव दरकिनार नहीं किया जा सकता। यह बात काबिलेगौर है कि बसपा आज भी धरातल पर सपा, कांग्रेस और भाजपा से ज्यादा मजबूत कही जा सकती है। ऐसे में मायावती को हल्के में लेकर चलना राजनीतिक पार्टियों की भारी भूल साबित हो सकती है। मायावती उत्तर प्रदेश ही नहीं पंजाब और उत्तराखंड में भी निर्णायक भूमिका में सामने आ सकती है।
हालांकि चुनावी तैयारियां सभी पार्टियों की ओर से तकरीबन एक साल पहले ही शुरू हो गई थीं, लेकिन मायावती ने जमीनी तौर पर अपने चिर परिचित अंदाज में चुनावी तैयारियां शुरू कर दी थी। जनता के बीच केवल उनके विपक्षी ही उनकी छवि को बिगाड़ने की बात करते हैं जबकि उनका वोट बैंक आज भी उन पर बहुत भरोसा करता है। यही भरोसा बसपा को दोबारा लखनऊ की कुर्सी दिला सकता है तो दूसरी ओर उत्तराखंड और पंजाब में भी सरकार में अहम रोल दिलाने में सहायक साबित हो सकता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में हालांकि कांग्रेस और भाजपा की ओर से बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं लेकिन हकीकत यही है कि मायावती तकरीबन डेढ़ साल पहले अपने प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर उनके हाथों अपने वोट बैंक को संतुष्ट कराने में लगी हुई है। दूसरी राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस, भाजपा, रालोद और सपा को तो अभी तक भी अपने प्रत्यााियों के चयन को लेकर पसीना आ रहा है। हालांकि पहले भी मायावती और बसपा को लेकर तमाम तरह की बातें होती आई हैं लेकिन 2007 में हुए विधानसभा चुनावों में 26 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत लाकरा मायावती ने खुद को साबित कर दिया था। एक बार फिर मायावती अपने पांच साल के काम के आधार पर अपने वोटरों के सामने वोट मांगकर सबको हैरान कर सकती है। दूसरी पार्टियों का नजारा देखें तो कई बातें सामने आती हैं। कांग्रेस के युवराज बड़े जोर-शोर से यूपी मिशन को फतह करने पर लगे हुए हैं। 2007 के विधानसभा चुनावों में महज 21 सीटें जीतकर खुद को बड़ा समझने वाली कांग्रेस का सपना 1989 की तर्ज पर इस बार फिर जनता से सत्ता की चाबी लेने का है लेकिन वह यह मानने को तैयार नहीं है कि लोकसभा चुनावों के बाद जितनी भी खाली हुई विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए हैं, उन पर कांग्रेस दूसरे से भी नीचे ही नंबर पर आई है। ऐसे में यूपी की सत्ता पर कब्जा पा लेना इतना आसान नहीं कहा जा सकता है। 
यूपी के चुनावी मौसम में सबसे अहम और विचारणीय बात यह भी है कि पूरी टक्कर बसपा और सपा के बीच दिखाई जा रही है। कांग्रेस और भाजपा को किनारे करने का प्रयास किया जा रहा है। खुद मायावती भी खूब कांग्रेस के खिलाफ जहर उगल रही है जबकि सपा या भाजपा को लेकर उनके बयान विरले ही आते हैं। हालांकि कांग्रेस इसे अपने लिए बेहतर रास्ता भले ही मानती हो लेकिन सचाई यह है कि बसपा अपने सबसे कमजोर प्रतिद्वंद्वी को मैदान में मारकर फिर लखनऊ की कुर्सी पर अपना कब्जा बरकरार रखना चाहती है। जबकि सपा या भाजपा से मायावती को खतरा पैदा हो सकता है। 
अब अगर उत्तराखंड और पंजाब में बसपा के रोल की बात करें तो नए समीकरण सामने आ रहे हैं। पंजाब में बसपा 90  सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने जा रही है तो उत्तराखंड में 70   विधानसभा सीटों पर। बसपा ने हाल ही में पंजाब में 90  सीटों में अपने प्रत्याशी उतारकर किसी दल के साथ गठबंधन या तालमेल बनाकर चुनाव लड़ने की अटकलों को सिरे से खारिज कर दिया। पार्टी का कहना है कि वह जल्द ही बाकी 27 सीटों पर भी अपने प्रत्याशी उतारने जा रही है। बसपा का पंजाब के होशियारपुर, नवांशहर, फिरोजपुर, जालंधर, रोपड़ व मोहाली जिलो में खासा आधार रहा है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पंजाब में 1992 और 1996 में बसपा के 13 में से तीन सांसद जीत चुके हैं। इसी तरह 1992 में बसपा के न विधायक जीते थे, जो प्रदेश विधानसभा में विपक्ष में सबसे अधिक थे। वर्ष 1997 में बसपा ने एकमात्र गढ़शंकर विधानसभा सीट जीती थी। बसपा का वोट बैंक सीधे तौर पर कांग्रेस का ही वोट बैंक रहा है। पार्टी अध्यक्ष मायावती के भी पंजाब में रैलियों के कार्यक्रम बना रही है। उनके आने के बाद यहां बसपा उम्मीदवारों का मनबल निश्चित तौर पर बढ़ेगा जो कि सरकार के गठन में अहम साबित हो सकता है। अब अगर उत्तराखंड की बात करें तो वर्तमान में बसपा के पास प्रदेश की आठ सीटें हैं। इन सभी सीटों पर बसपा के दमदार माने जाने वाले प्रत्याशी ही एक बार फिर चुनाव लड़ने जा रहे हैं, जिससे यह तो साफ है कि इन आठ सीटों की संख्या कम होने के बजाए इस बार बढ़ सकती है। इन सीटों के बढ़ने की स्थिति में प्रदेश सरकार के गठन को लेकर नया मोड़ सामने आ सकता है। यूपी और उत्तराखंड में मुख्य पार्टियां मानी जाने वाली कांग्रेस और भाजपा अभी तक पूर्ण तौर पर अपने पत्ते नहीं खोल पाई है। ऐसे में बसपा के लिए राह और आसान साबित हो सकती है

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