बुधवार, 29 दिसंबर 2010

नए साल के लिए सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् की कामना

सत्यजीत चौधरी
 गए साल को अलविदा कहना और नए साल का स्वागत कुछ-कुछ ऐसा होता है, जैसे एक ही दिन और एक ही समय आप रेलवे स्टेशन पर जाएं, किसी को सी-ऑफ करें और किसी को रिसीव कर घर ले आएं। किसी के जाने का गम है, लेकिन नए मेहमान के आने की खुशी भी है। लेकिन इस बार नए साल को विदा करते हुए बोझ-सा महसूस कर रहा हूं। पूरे साल का तख्मीना लगाता हूं तो लगता है कि यह साल वेवजह-सा निकल गया। कुछ कांक्रीट नहीं किया। कई दोस्तों से बात की, सबकी इसी तरह की फीलिंग रही। यार यह साल तो बेकार गया। 
   अपनी इस सोच को राष्ट्रीय राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य पर आरोपित करता हूं तो लगता है कि कुछ एक मामलों को छोड़ दिया जाए तो पूरा साल उपलब्धिविहीन रहा। अलबत्ता घपलों-घोटालों, महंगाई, नक्सलवाद-आतंकवाद ने पूरे साल को मथे रखा।
   महंगाई से शुरू करते हैं। सही बात तो यह साल 'डायन महंगाई के नाम रहा। इस डायन ने प्याज खाया, टमाटर और दीगर सब्जियां पेट में उतारीं, पेट्रोल पिया। सुनने में आया है कि अब डायन दिसंबर के अंत में रसोई गैस सूंघने और डीजल चखने के मूड में है। पूरे साल महंगाई को लेकर सरकार आंकड़ेबाजी करती रही। थोक मूल्य सूचकांक के फीगर इस बात कर इतराते रहे कि अनाज, सब्जियों और फलों के दामों में दस फीसद का इजाफा हुआ है, लेकिन सचाई तो यह है कि इस एक साल के दौरे कई चीजों के दाम दो-चौगुने बढ़े और आम आदमी की कमर दोहरी कर गए। कीमतों को लेकर सरकार सालभर दिलासे देती रही। प्रधानमंत्री आश्वासन देते दिखे कि महंगाई पर जल्द काबू पर लिया जाएगा। कृषि मंत्री शरद पवार ने भी बहलाने वाली बातों में साल निकाल दिया, लेकिन साल के अंतिम माह में महंगाई ने जो प्याज में डेरा डाला तो अस्सी के आंकड़े पर कई दिनों तक भारतनाट्यम करती रही।
   वैसे देखा जाए तो मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग पर कीमतों की रिले रेस इतना असर नहीं डालती, लेकिन निम्न वर्ग का तेल निकाल देती है। 'लक बाई चांस दिनभर में सौ-डेढ़ सौ कमाने वाला एक मजदूर अपना और परिवार के पेट की आग ठंडी करने में कमाई का अस्सी फीसद हिस्सा खर्च कर डालता है। नंगी नहाएगी क्या और निचोड़ीगी क्या।
   डायन के डांस के बीच सालभर करप्शन के तड़के लगते रहे। जहां से दरी हटाई वहीं भ्रष्टाचार के दर्शन हुए। नेता, नौकरशाह सभी काली कमाई से सने मिले। जो मामले सामने आए, उनमें टूजी स्पेट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स निर्माण घपला, आदर्श सोसायटी घोटाला, आईपीएल घोटाला, एलआईसी का हाउसिंग लोन घपला, कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा से जुडï़ा भूमि घोटाला। टूजी घोटाले को लेकर विपक्ष और खासतौर से भाजपा ने संसद नहीं चलने दी। देश के संसदीय इतिहास में यह पहली बार हुआ कि पूरा का पूरा सत्र शून्य घोषित हो गया। भाजपा ने करप्शन के मुद्दे पर संसद नहीं चलने दी। पार्टी ने टूजी समेत कई मुद्दों पर केंद्र को घेरा, लेकिन कर्नाटक में अपनी सरकार के भूमि घोटाले पर पर्दा डालती नजर आई। बेशर्मी की हद तो तब हो गई, जब भाजपा हाईकमान के निर्देश के बावजूद राज्य के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने इस्तीफा नहीं दिया और ठस्से के साथ ओहदे पर बने हुए हैं।
     इस साल के बड़े घोटालों का नाम लिया जाए तो सबसे पहले भ्रष्टाचार के आदर्श रूप सामने आया यानी 'आदर्श सोसायटी घोटाला। इस स्कैम ने देश के रक्षा और राजनीति से जुड़े कई अहम लोगों को अपनी चपेट में ले लिया। रिश्तेदारों को रेवड़ी की तरह फ्लैट्स बांटने के मामले में महाराष्ट्र के चीफ मिनिस्टर अशोक चव्हाण की कुर्सी चली गई। राजनेताओं के साथ सेना के चालीस अफसरों के नाम भी आए। इसके बाद आया कॉमनवेल्थ गेम्स के निर्माण से जुड़ा महाघोटाला। अस्सी हजार करोड़ का हेरफेर कई नेता-अफसर के वारे-न्यारे कर गया। टूजी स्पेट्रम घोटाले के बारे में अनुमान है कि एक लाख सत्तर हजार करोड़ रुपए नेता (डी. राजा समेत) और अफसर डकार गए। इसी तरह, आईपीएल घोटाला, एलआईसी का हाउसिंग लोन गड़बड़झालों में भी अफसरों ने अरबों कमाए। 
    इस साल, सबसे चर्चित मामला विकीलीक्स का रहा। विकीलीक्स के मालिक असांजे ने किस्तों में जो कुछ लीक किया, उसने  अमेरिका समेत कई देशों को नंगा कर दिया। इन खुलासों में अच्छा खासा जिक्र भारत का भी था। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने किस तरह अमेरिका से 'हिंदू आतंकवाद की चुगली की। किस तरह, पाकिस्तान साजिशें रचता रहा और कैसे भारतीय सेना उसे काउंटर करने की रणनीति बनाती रही।
ऐसा नहीं है कि सब बुरा-बुरा हुआ। खेलों के मामले में हाल के वर्षों में यह साल सर्वश्रेष्ठ माना जाएागा। हरियाणा के छोरों और छोरियों ने कॉमनवेल्थ गेस्म और फिर एशियाड में देश का परचम फहराया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई खिलाडिय़ों ने भी अच्छा प्रदर्शन किया। सचिन तो सिरमौर रहे। उन्होंने अपने कैरियर का पचासवां शतक लगाकर पूरी दुनिया में भारत का झंडा ऊंचा किया।
      इस साल अयोध्या में विवादित भूमि पर मालिकाना अधिकार को लेकर हाईकोर्ट का फैसला आया। निर्णय को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन जिस तरह से लोगों ने  तीस सितंबर को फैसला सुनने के बाद धैर्य और सौहार्द का परिचय दिया, वह काबिल-ए-तारीफ है।
 सदैव सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् की कामना करते रहना हमारी परंपरा है। २०११ देश और इस देश के नागरिकों के लिए अच्छा बीते, महंगाई डायन पर लगाम लगे, भ्रष्टाचार का नाश हो और देश चला रहे नेताओं और नौकरशाहों को सद्बुद्धि आए, बस यही कामना है। 

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

विकीलीक्स की दुनिया में आपका स्वागत है !

        
             सच सुनने, कहने और सहेजने में आपकी रुचि है तो जूलियन असांजे की दुनिया में आपका स्वागत है। अपनी वेबसाइट 'विकीलीक्स की मदद से ऑस्ट्रेलिया के इस खोजी पत्रकार ने साबित कर दिया कि अगर नन्हीं-सी चींटी विशालकाय हाथी की सूंड में घुस जाए तो काफी मुसीबत खडी हो सकती है। 'विकीलीक्स ने यही किया है। मीडिया की हकीकी आजादी के इस प्रबल पैरोकार ने अमेरिका जैसे महाबली को हिलाकर रख दिया है। 'विकीलीक्स ने सिर्फ अंकल सैम को ही औकात दिखा दी, बल्कि विश्व के कई अन्य खिलाडिय़ों के चेहरे से नकाब नोच फेंकी। गुटों में बंटे देश अपने ही गुट के सदस्य की बखिया उधेड़ रहे थे, यह राज भी 'विकीलीक्स ने फाश किया।
             कभी नौजवान रूपक मर्डोक ने एक लाइन कही थी-"In the race between secrecy and truth, it seems inevitable that truth will always win." " इस लाइन पर असांजे ने अपने जीवन की गाड़ी दौड़ा दी। आज भले ही वह कैद में हों, लेकिन उनकी आवाज आजाद है। हाल में ऑस्ट्रेलिया में छपे उनके पत्र ने दुनियाभर के पत्रकारों को सचाई की राह पर चलने की नसीहत दी है। 'विकीलीक्स के धमाकों के बाद जिस तरह से अमेरिका ने बौखलाई हुई प्रतिक्रिया दी है, उससे मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर उसकी प्रतिबद्धता भी सामने आ गई है। बहरहाल, असांजे ने जो किया है, उसने जाने-अंजाने विश्व के गठजोड़ों को हिलाकर रख दिया है।
         'विकीलीक्स के धमाकों ने साबित कर दिया है कि करीब-करीब सभी मित्र देश एक-दूसरे को किसी न किसी तरह धोखा दे रहे थे। अब सवाल यह उठता है कि क्या ये देश एक-दूसरे को शक्ल दिखा पाएंगे। क्या द्विपक्षीय या बहुपक्षीय रिश्तों के तार जुड़े रह पाएंगे। इन खुलासों ने अमेरिका के साथ ही कुछ यूरोपीय देशों को भी नंगा कर दिया है, जो कहते कुछ हैं और दिल में कुछ होता है। इन खुलासों ने जिन देशों की कथनी और करनी को बेनाब किया है, वे हैं-पाकिस्तान, सऊदी अरब, चीन, तुर्की, जर्मनी, इटली, फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया।
           भारत को लेकर अमेरका कितना गंभीर है, इसकी बानगी देखिये। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आते हैं और सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी को हवा दे जाते है। 'विकीलीक्स खुलासा करता है कि उनकी विदेश मंत्री मोहतरमा हिलेरी क्लिंटन स्थायी सीट को लेकर भारत की दावेदारी को स्वयंभू दावेदारी करार दिया। 'विकीलीक्स के एक और खुलासे ने भारत को लेकर अमेरिका की पोल खुल गई। पिछले दिनों अफगानिस्तान मसले को लेकर तुर्की में एक अहम बैठक बुलाई गई थी। पाकिस्तान के दबाव में इस सम्मेलन से भारत को अलग रखा गया। अमेरिका के पास यह भी गुप्त सूचना है कि भारत और पाकिस्तान के बीच अगर कभी फिर युद्ध छिड़ा तो वह परमाणु टकराव की हद तक जा सकता है। अमेरिका के थिंक टैंक और रक्षा विशेषज्ञ अकसर इस तरह की आशंकाएं व्यक्त करते रहे हैं, लेकिन खुद अमेरिकी सरकार परमाणु युद्ध की बात जानती, इसे वाशिंगटन ने भारत से छिपाए रखा।
          भारत को लेकर विकीलीक्स के ज्वालामुखी न जाने कितने और राज छिपे हैं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन एक बात साफ हो गई है कि पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों और इस्लामाबाद की तैयारियों को लेकर अमेरिका काफी कुछ जानता है। भारत के लिए यह अपनी रक्षा तैयारियों की समीक्षा का मौका है।
       अमेरिका और यूरोप में ठंडे मौसम में यह गर्मागर्म बहस चल रही है कि 'विकीलीक्स के खुलासे को सेंधमारी की श्रेणी में रखा जाए या यह विशुद्ध पत्रकारिता है। मेरे हिसाब से यह उत्कृष्ट और साहसी पत्रकारिता का नमूना है। आज जब पत्रकारिता सरोकारों की दुनिया से दूर जा चुकी है, 'विकीलीक्स उसे आईना दिखा रही है। 'विकीलीक्स ने दुनिया भर के अखबारों और टीवी न्यूज चैनलों को दिखा दिया है कि सिर्फ लेडी सेलिब्रिटीज की नंगी टांगें, महंगी कारों की लांचिंग, कारपोरेट जगत की उठापटक, फिल्मी सितारों की बेहयाइयां और अंतरराष्ट्रीय फलक पर एक-दूसरे को नीचा दिखाना ही पत्रकारिता नहीं है, बल्कि कूटनीति के नाम पर किस तरह देश एक-दूसरे को और जनता को छल रहे हैं, इसे भी समझना होगा। 'विकीलीक्स ने पत्रकारिता में पारदर्शिता के महत्व को सामने रखा है। यह सही है कि 'विकीलीक्स द्वारा उद्घाटित कुछ सूचनाएं किसी देश की रक्षा संबंधी गोपनीयता का हनन करती हो, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देशों द्वारा एक-दूसरे के पीठ में छुरा घोंपने का जो खेल चल रहा है, 'विकीलीक्स जैसे प्रयास उसे रोकने में कारगर भूमिका कर सकते हैं। सभी देशों में सूचना की गोपनीयता को लेकर कानून है। प्रेस भी इस दायरे में आता है। इसी हथियार के बल पर चलता है तथ्यों को तोडऩे-मरोडऩे और छिपाने का खेल। भारत में इस दिशा में एक अच्छी पहल सूचना के अधिकार के रूप में हुई है, लेकिन यहां भी कुछ बंदिशें लागू हैं।
           बहरहाल, पत्रकारिता में बदलाव के बयार की आहट साफ सुनाई दे रही है। असांजे ने अमेरिकी केबल्स को लीक करने से पहले दुनिया के चार बड़े अखबारों को सूचनाएं लीक कीं और अच्छी बात यह रही कि बिना डरे चारों ने उन केबल्स को अपना पेजों पर पर्याप्त स्थान दिया। अब संपूर्ण मीडिया जगत का फर्ज बनता है कि वह 'विकीलीक्स के अभियान के साथ कदम मिलाए।

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

काश! हर मस्ज़िद की खिड़की मंदिर में खुलती


         6 दिसंबर, 1992 को जब विवादित ढांचा ढहाया गया, तब मैं जवान हो रहा था। बारहवीं में था। पिताजी उन दिनों बुलंदशहर में बतौर अध्यापक तैनात थे। हम सब उनके साथ ही रह रहे थे। दंगे भडक चुके थे। हमने छत पर चढïकर दूर मकानों से उठती लपटों की आंच महसूस की थी। मौत के खौफ से बिलबिलाते लोगों की चीखें सुनी थीं। हैवानियत का नंगा नाच देखा था। ‘जयश्री राम’ और ‘अल्लाह ओ अकबर’ के नारों में भले ही ईश्वर और अल्लाह का नाम हो, लेकिन तब उन्हें सुनकर रीढ़ों में बर्फ-सी जम जाती थी। पूरा देश जल रहा था। अखबार और रेडियो पर देशभर से आ रही खबरें बेचैन किए रहतीं। हमारे हलक से निवाले नहीं उतरते थे। तभी से ‘छह दिसंबर’ मेरे दिमाग के किसी गोशे में नाग की तरह कुंडली मारकर बैठ गया था। कमबख्त तब से शायद हाईबरनेशन में पड था। इतने सालों बाद जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला सुनाने का ऐलान हुआ तो नाग कुलबुलाकर जाग गया। पिछले एक महीने से नाग और राज्य सरकार की तैयारियों ने बेचैन किए रखा। अयोध्या फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश के एडीजी (लॉ एंड आर्डर) बृजलाल के प्रदेशभर में हुए तूफानी दौरों ने और संशय में डाल दिया। इसके बाद शुरू हुआ ‘संयम की सीख का हमला। प्रदेश सरकारों से लेकर केंद्र सरकार, और संघ-भाजपा से लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, दारुल उलूम तक फैसले का सम्मान करने की घुट्टी पिलाते मिले। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया तो कुछ सुकून मिला, लेकिन चार दिन बाद ही जब सर्वोच्च अदालत ने मामला फिर हाईकोर्ट को लौटा दिया तो वही बेचैनी हावी हो गई।

            मुजफ्फरनगर गर्भनाल की तरह मुझसे जुड़ा है। मम्मी-पापा और बच्चे वहीं रहते हैं। ‘फैसले की घड़ी’ जैसे-जैसे नजदीक आती गई, जान सूखती चली गई। मैं दिल्ली में, बच्चे और मां-पिताजी वहां। मुजफ्फरनगर के कुछ मुस्लिम दोस्तों की टोह ली। वे भी हलकान मिले। हिंदुओं को टटोला, वहां भी बेचैनी का आलम। बस एक सवाल सबको मथे जा रहा था कि ‘तीस सितंबर’ को क्या होगा। कुछ और लोगों से बात हुई तो पता चला कि पुलिस वाले गांव-गांव जाकर उन लोगों के बारे में जानकारियां इकट्ठा कर रहे हैं, जिनकी छह दिसंबर, 1992 के घटनाक्रम के बाद भड़के दंगों में भूमिका थी या जो इस बार भी शरारत कर सकते थे। इस दौरान एक-दो बार मुजफ्फरनगर के चक्कर भी लगा आया। लोग बेहद डरे-सहमे मिले। उन्हें लग रहा था कि तीस तारीख को फैसला आते ही न जाने क्या हो जाएगा। सबको एक ही फिक्र खाए जा रही थी कि ‘छह दिसंबर’ न दोहरा दिया जाए। लोगों को लग रहा था कि शैतान का कुनबा फिर सड़कों पर निकल आएगा। पथराव होगा, आगजनी अंजाम दी जाएगी। अस्मतें लुटेंगी, खून बहेगा। इंसानियत को नंगा कर उसके साथ बलात्कार किया जाएगा।
           खैर ‘तीस सितंबर’ भी आ गई। उस दिन मैं गाजियाबाद स्थित ‘एक कदम आगे’ के कार्यालय में बैठा था। देश के लाखों लोगों की तरह मैं भी टीवी से चिपका था। खंडपीठ के निर्णय सुनाने के कुछ ही देर बाद हिंदू संगठनों के वकील और उनके कथित प्रतिनिधि न्यूज चैनलों पर नमूदार हो गए। उन्होंने फैसले की व्याख्या जिस अंदाज में शुरू की, उसने सभी को डराकर रख दिया। कई चैनल ऐसे भी थे, जिन्होंने समझदारी से काम लिया और फैसले की प्रमुख बातों को समझने के बाद ही मुंह खोला।। बहरकैफ, इस दौरान मैं लगातार मुजफ्फरनगर के लोगों के संपर्क में रहा। इस बीच, खबर आई की मुजफ्फरनगर जिले की हवाई निगरानी भी हो रही है। सुरक्षा प्रबंधों से साफ हो गया था कि शासन ने मुजफ्फरनगर जनपद को संवेदनशील जिलों में शायद सबसे ऊपर रखा था। राज्य सरकार कोई रिस्क नहीं लेना चाह रही थी।
          मैं घबराकर इंटरनेट की तरफ लपका। मेरी हैरत की इंतहा नहीं रही, जब मंने पाया कि ट्वीटर, फेसबुक और जीटॉक के अलावा ब्लाग्स पर ‘जेनरेशन नेक्स्ट’ अपना वर्डिक्ट दे रही थी, अमन, एकजुटता और भाईचारे का ‘फैसला’। एक भी ऐसा मैसेज नहीं मिला जो नफरत की बात कर रहा हो। पहले तो यकीन नहीं हुआ, फिर इस एहसास से सीना फूल गया कि देश का भविष्य उन हाथों में है, जो हिंदू या मुसलमान नहीं, बल्कि इंसान हैं। कह सकते हैं कि भविष्य का भारत महफूज हाथों में हैं। कई युवाओं ने फैसले पर ट्वीट किया था- ‘न कोई जीता, न कोई हारा। आपने नफरत फैलाई नहीं कि आप बाहर।’
       
कहीं पढ़ा था कि पुणे में घोरपड़ी गांव है, जहां मस्जिद की खिड़की हिंदू मंदिर में खुलती है। अहले-सुन्नत जमात मस्जिद और काशी विशेश्वर मंदिर को अगर जुदा करती है, तो बस ईंट-गारे की बनी एक दीवार। एक और रोचक तथ्य इस दोनों पूजास्थलों के बारे में यह है कि जब बाबरी विध्वंस के बाद पूरे देश में दंगे भड़क रहे थे, पुणे में दोनों समुदाय के लोगों ने मिलकर मंदिर का निर्माण कर रहे थे। निर्माण के लिए पानी मस्जिद से लिया जाता था। याद आया कि ऐसी ही शानदार नजीर हम मुजफ्फरनगर वाले काफी पहले पेश कर चुके हैं। कांधला में जामा मस्जिद और लक्ष्मी नारायण मंदिर जमीन के एक ही टुकड़े पर खड़े होकर ‘धर्म के कारोबारियों’ को आईना दिखा रहे हैं। माना जाता है कि मस्जिद 1391 में बनी थी। ब्रिटिश शासनकाल में मस्जिद के बगल में खाली पड़ी जमीन को लेकर विवाद हो गया। हिंदुओं का कहना था कि उस स्थान पर मंदिर था। मामला किसी अदालत में नहीं गया। दोनों फिरकों के लोगों ने बैठकर विवाद का निपटारा कर दिया। तब मस्जिद के इंचार्ज मौलाना महमूद बख्श कंधेलवी ने जमीन का वह टुकडा हिंदुओं को सौंप दिया। वहां आज लक्ष्मी नारारण मंदिर शान से खड़ा है। मंदिर में आरती होती है और मस्जिद से आजान की आवाज बुलंद होती है। सह-अस्तित्व की इससे बेहतर मिसाल और क्या होगी। यह है हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत की मिसाल।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स की कुछ अनकॉमन बातें

सत्यजीत चौधरी    
विवादों, अधूरेपन, मौसम की मार और करप्शन की बयार के बीच कॉमनवेल्थ गेम्स-२०१० की नई दिल्ली में ओपनिंग और क्लोजिंग शानदार रही। खेलों की बात की जाए तो मौजूदा दौर में क्रिकेट के बाद शायद कॉमनवेल्थ गेम्स-२०१० ऐसा इवेंट होगा, जिसे भारत के लोग लंबे समय तक याद रखेंगे। 38 गोल्ड और कुल 101 मेडल के साथ भारत ने ओलंपिक्स खेलों के आयोजन को लेकरअपने दमखम के दावे पर पक्की मुहर भी लगा दी। लंबे वक्त तक खेल गांव और दूसरे स्टेडियम्म की रूमानी रंगीनियां और दिल्ली का दिलकश कायापलट लोगों के जेहन में कौंधता रहेगा। इस खेल आयोजन ने एक बार फिर साबित कर दिया कि असली भारत गांवों में बसता है। दुनियाभर के 53 देशों से आई 71 टीमों में भारत की मिट्टी की सोंधी महक मुखर रही। महिला कुश्ती में सोना जीतने वाली अलका तोमर हों या फिर जिमनास्टिक्स को चांदी की चमक देने वाला इलाहाबाद का छोरा आशीष कुमार, सबकी जड गहरी गांव से जुडी हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स-2010 ने साबित कर दिया कि भारतीय खेल के सुपर हीरो सिर्फ बड़े शहरों के सुविधा सपन्न स्टेडियमों और शूटिंग रेंज्स से निकल कर नहीं आते है, गांव की पगडंडियों से भी चलकर आते हैं और अपने हुनर से सबको चकित कर देने का माद्दा रखते हैं। कुरुक्षेत्र के उर्मी गांव के राजेंद्र कुमार सहारन का सफर भूख से गोल्ड मेडल तक का रहा। ग्यारह साल की कच्ची उम्र से गांवों के दंगलों में कुश्ती लड़कर परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने वाले इस मल्ल ने अपनी लगन और हौसले से इस बुलंदी को छुआ। मेरठ के सिसौली गांव की अलका तोमर भी गांव की कच्ची मिट्टी में हमजोलियों से कुश्ती लड़-लड़कर इस मुकाम तक पहुंची। रिकर्व तीरंदाजी में भारत को सोना दिलाने वाली दीपिका आदिवासी है और उसके पिता ऑटो रिक्शा चलाते हैं। डोला बनर्जी जैसी सिद्धहस्त तीरंदाज के हाथ कांपे तो 16 साल की इस छोरी ने प्रत्यंचा खींची और निशाना गोल्ड पर सटीक बैठा। भिवानी की तीन बहनों को कोई कैसे भूल सकता है। आज भले गीता, बबीता और अनीता पर पैसों की बरसात हो रही हो, लेकिन मिट्टी से मेडल तक का कठिन सफर इन बहनों ने कैसे तय किया है, यह वे ही जानती हैं। प्रदेश स्तर पर देखा जाए तो कॉमनवेल्थ गेम्स में हरियाणा का दबदबा रहा। हरियाण की महिलाओं ने अकेले आठ पदक जीते। पुरुष रेस्लरों और मुक्केबाजों ने जो तमगे हासिल किए वे अलग हैं। उत्तर प्रदेश को चार स्वर्ण के साथ आठ पदकों पर संतोष करना पडा। निशानेबाजी के लिए आजमगढ़ के ओंकार, वेटलिफ्टिंग के लिए लखनऊ की रेणु बाला, कुश्ती के लिए मेरठ की अलका तोमर और निशानेबाजी के लिए बरेली के इमरान हसन को जब सोने के मेडल से नवाजा गया तो उस दौरान उनकी हौसला अफजाई के लिए उत्तर प्रदेश सरकार का कोई नुमाइंदा खेल गांव में मौजूद नहीं था। खेलों को लेकर यह है हमारी राज्य सरकार की उदासनीता। इसके बरअक्स हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा विभिन्न मौकों पर अपने खिलाडिय़ों के साथ न सिर्फ बने रहे, बल्कि खिलाडिय़ों को प्रोत्साहित भी करते दिखे। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भी कई मुकाबलों में मौजूद रहे और उन्होंने का जोश बढ़ाया।