शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

हत्या पर राजनीति !


‘सजा-ए-मौत’, तीन शब्दों की यह अदालती टर्मिनोलॉजी अंदर तक हिला कर रख देती है। सजा—ए—मौत यानी हाड़-मांस एक व्यक्ति की सांसों के आगे फुलस्टाप लगा देने की अंतिम न्यायिक लाचारी। इस फैसले के आगे न न्याय की किताब कुछ कहती है और न ही कानून बनाने वाला इंसान कुछ कर सकता है। अर्थात उस व्यक्ति ने ऐसा दुर्लभतम अपराध किया है, जिसके लिए इस सजा से कम कुछ नहीं हो सकता है। हिटलर, जोसेफ मुलोसिनी, पोट पॉल, ईदी अमीन, सद्दाम हुसैन, ओसामा बिन लादेन, ऑगस्टो पिनोशे, मुअम्मर गद्दफी बहुत लंबी लिस्ट है.कुछ ने खुद जान दे दी, कुछ को जनता ने मार दिया और कुछ सिस्टम या सरकार के हाथ मारे गए। जो अप्राकृतिक मौत मरने से बच गए, वे तिल-तिल कर मरे। इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं, जैसे सैन्य शासन द्वारा पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी देने का मामला। खैर कहने का मतलब यह है कि पूरी दुनिया में गुनहगार को कानून द्वारा जल्द से जल्द सजा देने का प्रावधान है। सिर्फ भारत ही इससे अछूता है। अफजल गुरु और कसाब के मामलों को छोड़ दिया जाए तो यहां पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और दूसरे बड़े नेताओ के हत्यारों को मिली मौत की सजा पर सियासी गोटियां चली जाती हैं। मानवीयता और दया की आड़ वोट का कारोबार होता है।

अब चूंकि लोकसभा के चुनाव करीब हैं तो दया की राजनीति हिलोरे लेने लगी है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा पाए कई लोगों की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया था तो उसी समय राजीव गांधी के हत्यारों और दिल्ली बम कांड के दोषी देवेेंदर सिंह भुल्लर के रिश्तेदारों ने अपने वकीलों को सक्रिय कर दिया था।

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

उम्मीदों के मुख्यमंत्री !

सत्यजीत चौधरी  
  पहाड़ की तुलना धैर्य से की जाती है। अडिग—अविचल खड़ा पहाड़ जाने क्या—क्या झेलता है। मौसम की मार, खनन के हथोड़े, हिमपात, बरसात, भूस्खलन....@...लेकिन एक वक्त ऎसा भी आता है, जब पहाड़ का सब्र टूट जाता है। उत्तराखंड में बदरीनाथ में प्रकृति का तांडव हुआ, उसकी भयानक अनुगूंज राजनीतिक गलियारों में भी सुनाई दी। जब इस गूंज को अनसुना कर दिया गया तो विजय बहुगुणा की कुर्सी चली गई और हरीश रावत को मुख्यमंत्री का पद मिल गया।
     कुमाऊं और गढ़वाल के खांचों में बंटे तेरह साल पुराने इस राज्य में गुटबाजी हमेशा हावी रही। कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा की, खेमेबंदी से नहीं उबर पाईं। दोनों ही दलों की सरकार में मुख्यमंत्री को बदलकर हालात बदलने की जुगत को ही निदान मान लिया गया। मर्ज की असली वजह पहचनने की कोशिश नहीं हुई। तेरह—सवा तेरह साल की इस सरकार की कमान संभालने जा रहे हरीश रावत गुटबाजी पर नियंत्रण पाकर कैसे अपनी सरकार बचा पाएंगे, यह वक्त ही बता पाएगा।