बुधवार, 28 मई 2014

राम भरोसे केदारनाथ के दर्शन

सत्यजीत चौधरी
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।
       महान कवि जयशंकर प्रसाद के कालजयी महाकाव्य कामायनी के चिंता सर्ग की ये दो लाइनें पिछले साल भी दिमाग में कौंधी थीं, जब जल प्रलय ने उत्तराखंड के एक बड़े हिस्से को झिंझोड कर मलबे में तब्दील कर दिया था। इस साल जब केदारनाथ की वाॢषक यात्रा शुरू हुई तो मेरे अंदर बैठा मनु (कामायनी का मुख्य चरित्र) बेचैन हो उठा। चल पड़ा हिमगिरि के उत्तुंग शिखर की तरफ, ताकि देख सके कि प्रकृति द्वारा लहूलुहान पुरुष अपने जख्मों को कितना भर पाया है। ढेरों सवाल थे। बाबा केदारनाथ की नगरी तक जाने वाले वे रास्ते और पुल क्या फिर बन पाए, जिन्हें बाढ़ बहा ले गई थी? वैकल्पिक पैदल मार्ग कैसा है और उसपर कैसी सुविधाएं हैं? जिन धर्मशालाओं और गेस्ट हाउसों को बाढ़ बहा ले गई थी, क्या वे फिर से आबाद हो पाए हैं? क्या तीर्थयात्रियों की ठहरने, खाने—पीने और स्वास्थ्य सेवा फिर से बहाल हो पाई है?

शनिवार, 17 मई 2014

अब मोदी होने का मायने-मतलब 

सत्यजीत चौधरी
    तमाम पूर्वानुमानों को ध्वस्त करते हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रचंड बहुमत लाकर साबित कर दिया कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लडऩे का उसका फैसला एकदम सही था। इस चुनाव में जनाकांक्षाके प्रतीक बनकर उभरे मोदी ने जीत के लिए जान लड़ा दी और नतीजे अनुकूल से कहीं ज्यादा आए। चुनाव के दौरान और नतीजों के बाद मोदी लार्जर देन लाइफ बनकर उभरे। अब मोदी की बड़ी तस्वीर से कहीं बड़ी वे उम्मीदें हैं, जो पूरे देश ने लगा रखी हैं। यानी अच्छे दिन की आस, जिसका वादा पार्टी और मोदी प्रचार के दौरान करते रहे हैं।
       पहले हमें जनाकांक्षा को समझना होगा। याद करें अन्ना का आंदोलन। 2011 में इस आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हुई और 2012 तक आंदोलन जवान हो गया। लोग सिस्टम से खफा थे। भ्रष्टाचार, विकास, महंगाई, नक्सलवाद, महिलाओं की सुरक्षा, कश्मीर, सडक़, बिजली और पानी जैसे मुद्दों पर सरकार की चुप्पी युवाओं से भरे भारत को निराश कर रही थी। बस यही टर्निंग प्वाइंट था, जिसे भाजपा और संघ ने भांपा और उतार दिया मोदी को मैदान में। कांग्रेस लोगों के गुस्से को समझ ही नहीं पाई। आंदोलन में अरविंद केजरीवाल के कूदने और उसे राजनीतिक स्वरूप देने की कोशिशों के चलने अन्ना मुहिम से अलग हो गए। दिल्ली के चुनाव में के केजरीवाल ने अन्ना की वैचारिक विरासत को कैश कर लिया। फिर अपने ही ऊंटपटांग फैसले के चलते हाशिये पर चले गए। मैनेजमेंट के माहिर मोदी चुपचाप पब्लिक की पल्स को समझते रहे। फिर 2013 में जब आम चुनाव का ऐलान हुआ तो मोदी पूरे होमवर्क के साथ मैदान में कूद पड़े। 2जी—3जी घोटालों, कॉमवेल्थ घपले और कोलगेट स्कैम की पर्तों को उघाड़ते मोदी ने महंगाई और अव्यवस्था से परेशान लोगों के सामने अन्ना के दर्द को अपनी शब्दावली के साथ पेश किया। लोगों को लगा कि मसीहा आ गया है।

सोमवार, 12 मई 2014

कुर्सी से पहले पड़ोसियों को साधने की कवायद

सत्यजीत चौधरी       
     लोकसभा चुनाव के नतीजे आने में अभी काफी समय है, लेकिन चरण दर चरण मतदान के बाद जीत के विश्वास से लबरेज नरेंद्र मोदी मेराथन रैलियों के बीच घरेलू और विदेश नीतियों को समझने और समझाने में भी जुट हुए हैं। विदेश नीति को विशेष रूप से फोकस कर रहे हैं। पड़ोसियों के दिमाग में उपज रहे संशय के बादलों को छांटने के साथ ही वह होमवर्क भी कर रहे हैं, ताकि जिम्मेदारी मिलने के साथ ही बेहतर रिश्तों की तरफ कदम बढ़ाया जा सके। 
     
        भाजपा को अगर केंद्र में सरकार बनाने का मौका मिलता है तो मोदी के लिए सबसे मुश्किल काम होगा अमेरिका को साधना। ओबामा प्रशासन ने अभी तक खुलकर कोई ऐसा संकेत नहीं दिया है कि मोदी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार के प्रति उसका क्या रवैया होगा। पाकिस्तान के साथ ठहरी बातचीत को फिर से पटरी पर लाना और विश्वास बहाली का माहौल तैयार करना मोदी के लिए दूसरी बड़ी चुनौती होगी। मोदी ने इस चुनौती से निपटने की तैयारी अभी से शुरू कर दी है। अंग्रेजी समाचारपत्र द हिंदू की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि नरेंद्र मोदी के दो सलाहकारों ने हाल में पाकिस्तान का दौरा कर वहां मुस्लिम लीग के नेताओ से बातचीत की थी। पाकिस्तान मुस्लिम लीग—नवाज ही की वहां केंद्र और पंजाब प्रांत में सत्ता है। पाकिस्तान में आधिकारिक सूत्रों के हवाले से इस मुलाकात के बारे में द हिंदू ने लिखा है कि मोदी के दोनों अज्ञात दूतों ने मुस्लिम लीग के नेताओ से क्या बातचीत की, इसका खुलासा नहीं हो सका, लेकिन भारत में मौजूदा चुनावी परिदृश्य और भविष्य को लेकर मिल रहे संकेतों के मद्देनजर ये मुलाकात काफी अहम है। दूतों को भेजकर मोदी ने यह साफ करने की कोशिश की है कि अगर वह प्रधानमंत्री बनते हैं तो भारत—पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय रिश्तों पर वह ग्रेनेड फेंकने नहीं जा रहे हैं।

शुक्रवार, 2 मई 2014

क्या आरक्षण का डोज जाट लैंड में बदलेगा समीकरण

Published  12 March 2014 in Hari Bhoomi 
सत्यजीत चौधरी
       बात एक अटपटे प्रसंग से शुरू कर रहा हूं। तीन मार्च को केंद्रीय कैबिनेट की बैठक थी। माना जा रहा था कि मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में चल रही बैठक में भ्रष्टाचार निरोधी ऑर्डिनेंस पर कोई फैसला आ सकता है, लेकिन कैबिनेट ने जाट बिरादरी को पिछड़ी जातियों की केंद्रीय सूची में शामिल करने का एेलान कर दिया। इसमें नया कुछ नहीं था। माना जा रहा था कि मनमोहन सिंह चुनाव से पहले इसका ऐलान कर सकते हैं। हैरत की बात यह है कि कैबिनेट द्वारा जाटों को लेकर ऐलान से काफी पहले शाम को पश्चिमी यूपी आेैर दिल्ली के कुछ समाचारपत्रों में रालोद नेता और केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह का आभार वाला एक पेज का विज्ञापन पहले पहुंच गया। इस दो बातें साबित हुईं, पहली यह कि इस फैसले को एेन चुनाव से पहले अमली जामा पहनाने में अजित सिंह की बड़ी भूमिका थी और दूसरा यह कि केंद्रीय सेवाओ और शिक्षण संस्थानों में ओबीसी कोटे के तहत जाटों को आरक्षण देकर कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि पश्चिमी यूपी में वह चुनाव अजित सिंह के नेतृत्व में लड़ेगी।
     केंद्र सरकार के इस फैसले ने रालोद में जोश का बारूद भर दिया है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद छोटे चौधरी की चुप्पी ने रालोद के सामाजिक समीकरण पर असर पड़ा था। यहां तक कि कहा जाने लगा कि बागपत समेत कई अन्य जिलों में अजित सिंह के प्रति जाट समुदाय की प्रतिबद्धता डगमगाने की बात होने लगी थी। अजित और जयंत के सामने जाटलैंड में अपनी विरासत को सहेजने की चुनौती थी। इसके लिए रालोद ने पदयात्रा से लेकर तमाम तीर तरकश से छोड़े। आखिर में चौ. अजित सिंह ने केंद्र सरकार से साफ-साफ कह दिया कि अगर पश्चिमी यूपी में भाजपा को रोकना है तो जाट आरक्षण का ब्रह्मा चलना ही पड़ेगा। दरअसल यूपीए—2 सरकार जाटों को आरक्षण देने से हिचक रही थी। कई कारण थे। मुजफ्फरनगर दंगों की पृष्ठभूमि में पैदा हालात में पश्चिमी यूपी में कांग्रेस को लेकर मुसलमान और बिदकने का खतरा है। दूसरी जातियां भी आरक्षण का मुद्दा उठा सकती थीं।

मुश्किल होती कांग्रेस की राहें !

सत्यजीत चौधरी 
      कहते हैं मुसीबत में साया भी साथ छोड़ देता है। यही हाल कांग्रेस का हो रहा है। नरेंद्र मोदी की हवा और आम आदमी पार्टी की धमक के चलते कांग्रेस हाशिये की तरफ खिंचती नजर आ रही है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में पार्टी के वरिष्ठ नेता साथ छोड़ रहे हैं तो तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में अपने ही जख्म दे रहे हैं। बिहार में हाल में राजद के साथ कांग्रेस के गठबंधन में मिठास कम और खटास ज्यादा है। 

द्रमुक ने दिया दर्द 
आखिरी क्षणों में पलटी मारकर कांग्रेस के लिए दरवाजे बंद करते हुए द्रमुक ने पिछले दिनों तमिलनाडु में 35 और पुडुचेरी की एक लोकसभा सीट पर अपने उम्मीदवारों की सूची का ऐलान कर दिया कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी। भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने के बाद जिन दो मंत्रियों, ए राजा और दयानिधि मारन को द्रमुक ने फिर से उम्मीदवार बना दिया है। पिछले साल यूपीए से अलग होकर द्रमुक ने साफ कर दिया था कि भविष्य में वह कांग्रेस से कोई नाता नहीं रखेगी। अब हालात ये हैं कि तमिलनाडु कांग्रेस अलग—थलग सी पड़ गई है। यहां 24 अप्रैल को वोट पडऩे हैं। राज्य में लगभग सभी पार्टियों ने उससे दूर रहना पसंद किया है।
      पूर्व गठबंधन सहयोगी द्रमुक द्वारा चुनावी तालमेल का दरवाजा बंद करने और डीएमडीके के भाजपा की तरफ रुझान के बाद कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा हो गई है। अब तक कांग्रेस तमिलनाडु में दो प्रमुख द्रविड़ पाॢटयां—द्रमुक और अन्ना द्रमुक के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की आदी रही है। अब यहां 1998 की तरह का परिदृश्य बनता दिख रहा है। तब कांग्रेस की झोली में एक भी सीट नहीं आई थी।
     कांग्रेस के अलग—थलग पडऩे के और भी कारण हैं। कांग्रेस ने राजीव गांधी हत्याकांड मामले में सात दोषियों की रिहाई का विरोध किया था। इससे भी उसकी परेशानियां बढ़ी हैं। अन्नाद्रमुक प्रमुख एवं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता ने इस हत्याकांड में उम्रकैद की सजा पाए सात दोषियों की रिहाई का निर्देश दे कर इस संवेदनशील मुद्दे पर बाजी मार ली। उसके घोर विरोधी द्रमुक ने भी रिहाई का समर्थन किया।
     अब चलते हैं आंध्र प्रदेश। विभाजन से पहले आंध्र प्रदेश में अप्रैल-मई में लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव होने हैं और विभाजन के बाद बनने वाले दोनों राज्यों में कांग्रेस की हालत खराब है।

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

'मोदी ' संघ का मास्टर स्ट्रोक


सत्यजीत चौधरी
    चुनावी बिसात पर तेजी से चालें चली जा रही हैं। शह और मात के इस खेल में सेहरा किसके सिर बंधेगा, इसका फैसला तो 16 मई को होगा, लेकिन अलग तरह से लड़े जा रहे इस चुनाव ने कई चीजें बदलकर रख दी हैं। राष्ट्रीय फलक पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का उदय इनमें एक बड़ी घटना है। मोदी आए और बहुत ही कम समय में उन्होंने सोच से लेकर लड़ाई के तरीके तक बदल डाले। 13 सितंबर, 2013 को भाजपा द्वारा मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद कई बड़े बदलाव दिखे हैं। खुद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ढांचे में बढ़ा परिवर्तन दिखने लगा है। संघ के गणवेश को लेकर नाक-भौं सिकोडऩे वाला युवा वर्ग अब संघ की विचारधारा का कायल होता जा रहा। संघ की शाखाआें में युवाआें की सहभागिता में वृद्धि दर्ज की गई है। 
 
 दरअसल देखा जाए तो मोदी के पक्ष में जो हवा चल रही है, उसके पीछे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की दो साल की मेहनत और रणनीति का बड़ा रोल है। संघ ने पिछले दो साल में जमीनी स्तर पर यूपीए सरकार में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाया, उसने जनता में कांग्रेस और उसके घटक दलों के प्रति नाराजगी बढ़ी। खास बात यह है कि संघ ने कुल मिलाकर 120 सीटों वाले उत्तर प्रदेश और बिहार पर खास तौर से फोकस किया। इस काम में संघ के आनुषांगिक संगठनों, खास तौर से विद्यार्थी परिषद और भारतीय जनता युवा मोर्चा ने बड़ी भूमिका अदा की। आज अगर युवाआें का एक बड़ा वर्ग मोदी का दीवाना है तो उसका श्रेय संघ की युवाआें को जागृत करने की रणनीति को जाता है। 

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

तार-तार होता आप का तिलिस्म !

सत्यजीत चौधरी 
" आप अगर आप न होते तो भला क्या होते, लोग कहते हैं कि पत्थर के मसीहा होते "
      भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद ही किसी एेसी पार्टी का उल्लेख मिले जिसका जन्म दूसरी पार्टियों का होश फाख्ता करने वाला हो और तेजी से जवानी की सीढ़ी चढ़ते हुए जो होश खोकर अपना सत्यानाश करा बैठे। जी हां, आम आदमी पार्टी की बात हो रही है। संक्षेप में कहें तो रामराज के खाके के साथ प्रस्तुत हुई आप का तिलिस्म बड़ी तेजी से तार-तार हो रहा है। तस्वीर धीरे-धीरे नहीं, बल्कि बड़ी तेजी से साफ हो रही है। पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल में एक खास तरह का उतावलापन है, जो बताता है कि उन्हें भ्रष्टाचार और राजनीतिक कदाचार के खात्मे और आडंबरविहीन साफ-सुथरे सिस्टम की स्थापना के वजाये कुर्सी की अधिक चिंता है। यही बेचैनी उनकी कोर टीम के सदस्यों में भी दिखाई दे रही है।
      आम आदमी पार्टी करप्शन के खिलाफ एक ठोस ब्यू प्रिंट के साथ हाजिर हुई थी। भ्रष्टाचारी को चौराहे पर सरेआम फांसी पर लटका देने, वसूली सुनिश्चित करने से लेकर जेल में डाल देने का एेलान करने वाली आम आदमी पार्टी की इस वैचारिक आक्रामकता के प्रति युवा वर्ग और शहरी आबादी का एक तबका आकर्षित भी हुआ, लेकिन समय के साथ मुलम्मा उतरता चला गया। पार्टी के पदाधिकारियों व कार्यकर्ताआें पर जब भ्रष्टाचार के आरोप सही पाए गए तो उन्हें सिर्फ पार्टी से निष्कासित कर काम चला लिया गया। इसी से पता चलता है कि आप की कथनी और करनी में कितना अंतर है। बाकी जगह भी तो यही होता है। किसी पर भ्रष्टाचार का आरोप सही पाया जाता है तो उसे निलंबित या ज्यादा से ज्यादा निष्कासित कर दिया जाता है। सवाल यह उठता है कि दूसरों के भ्रष्टाचार के खिलाफ आप के तीखे तेवर आखिर अपने लोगों के भ्रष्टाचार पर नरम क्यों है?

गुरुवार, 13 मार्च 2014

अमर सिंह ने बिगाड़ा यूपी में समीकरण

चौधरी अजित सिंह की राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) में हाल ही में शामिल हुए अमर सिंह और जया प्रदा ने न सिर्फ राजनीति के जानकारों को हैरान कर दिया, बल्कि यहां से लोकसभा चुनाव की दौड़ में शामिल कई बड़ी पार्टियों की रणनीति और समीकरण को बिगाड़ दिया है। जय प्रदा बिजनौर और अमर फतेहपुर सीकरी से लोकसभा चुनाव में किस्मत आजमाएंगे। फतेहपुर सीकरी सीट पर समाजवादी पार्टी (सपा) ने उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल के सदस्य अरिंदम सिंह की पत्नी पक्षलिका सिंह, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने रामवीर उपाध्याय की पत्नी सीमा उपाध्याय को टिकट दिया है। सीमा फतेहपुर सीकरी से निवर्तमान सांसद है। उन्होंने कांग्रेस के राज बब्बर को हराया था। बब्बर ने हालांकि, फिरोजाबाद उपचुनाव में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव को हराया था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अभी इस पर उम्मीदवार घोषित नहीं कर पाई है। हालांकि पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह, अभिनेता सन्नी देओल, बाबू लाल चौधरी, केशव दीक्षित के नाम पर चर्चा चल रही है।

मंगलवार, 11 मार्च 2014

’हरियाणा से खास मुलाकातें’ का विमोचन

    
     हरियाणा की राजनीति, साहित्य, संस्कृति, कला, खेल और प्रशासन से जुड़ी हस्तियों से रूबरू कराती दैनिक हरिभूमि के संपादक ओमकार चौधरी की आठवीं पुस्तक ‘हरियाणा से खास मुलाकातें’ का रविवार को विमोचन किया गया। पं. नेकीराम शर्मा राजकीय महाविद्यालय के ओपन थियेटर में हरिभूमि के पांचवें कवि सम्मेलन में भाजपा के राष्ट्रीय सचिव कैप्टन अभिमन्यु, कवि डॉ. हरिओम पंवार, अरूण जैमिनी, सुनील जोगी, ममता शर्मा, नवाज देवबंदी और कौटिल्य पंडित के हाथों पुस्तक का लोकार्पण हुआ।

रविवार, 9 मार्च 2014

पनडुब्बी, पोत निर्माण में भारत को होना होगा आत्मनिर्भर

सत्यजीत चौधरी
मौजूदा दौर में भारतीय नौसेना अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। पिछले एक साल में नौसेना की पनडुब्बियों और युद्धक पोतों में दस से ज्यादा दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। कई अफसरों और नौसैनिकों को जान गंवानी पड़ी। पनडुब्बी आईएनएस सिंधुरत्न हादसे के फौरन बाद नौसेना प्रमुख एडमिरल डीके जोशी को नैतिक रूप से जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। आईएनएस कोलकाता में दुर्घटना के ताजा मामले के बाद भाजपा ने रक्षा मंत्री एके एंटनी से त्यागपत्र की मांग रख दी। 

सोमवार, 3 मार्च 2014

रावत कि कच्ची राह

सत्यजीत चौधरी 
  उत्तराखंड में हरीश रावत को विरासत में जो सत्ता मिली है, उसकी चूलें हिली हुई हैं। सरकार की छवि पर डेंट पड़ा हुआ है, उसे रिपेयर करना है। नौकरशाहों में विश्वास बहाली कर उन्हें ठप पड़े विकास कार्यों से जोडऩा है। नाराज मीडिया को मनाना है, ताकि सही सूचना शासन तक पहुंच सके। इनमें सबसे बड़ा काम है, प्राकृतिक आपदा के बाद उपेक्षा की शिकार जनता को यह समझाना कि अब उसके साथ न्याय नहीं होगा। इन सबसे ऊपर है लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी को तैयार करना। रेत घड़ी तेजी से सरक रही है और हरीश रावत जानते हैं कि उन्हें बिना रुके अनथक काम करना होगा, वरना जिस चुनावी मिशन पर उन्हें उत्तराखंड भेजा गया है, वह धरा रह जाएगा।
   इन तमाम चुनौतियों के साथ उन्हें पार्टी के भीतर खेमेबाजी से निपटना है। कहते हैं कि सबको खुश करना नामुमकिन है, लेकिन हरीश रावत को यह असंभव काम भी कर दिखाना है।
    हरीश कड़े फैसले ले रहे हैं और जनता तक सीधी पहुंच बनाने के लिए ग्रास रूट तक जा रहे हैं। शायद यही वजह है कि लोगों को उनमें नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल का फ्यूजन नजर आ रहा है। हरीश रावत की जद्दोजहद प्रदेश की राजनीति में क्या असर डालेगी, विपक्ष भी इसके इंतजार में है।

आतंक का राजनीतिकरण

सत्यजीत चौधरी 
   राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा माफ किए जाने के फौरन बाद सभी दोषियों की रिहाई के बारे में तमिलनाडु सरकार के अप्रत्याशित और त्वरित फैसले के एलान पर केंद्र में कांग्रेसनीत सरकार और कांग्रेस पार्टी की तरफ से दो मार्मिक बयान आए। पहला बयान एक बेटे का था तो दूसरा देश के प्रधानमंत्री का। अमेठी का दौरा कर रहे कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी जब पूरब गांव में एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे तो उनके पीएस ने जयललिता की घोषणा के बारे में उनको सूचना दी। राहुल खुद को रोक नहीं सके। दिल की बात जनता के सामने रख दी। कहा, मेरे पिता जी की हत्या हुई थी। उन्होंने देश के लिए जान दी थी। हमारे पिता या परिवार की बात नहीं है ।देश की बात है ,अगर कोई आदमी प्रधानमंत्री की हत्या कर दे और उसे छोड़ दिया जाए जिस देश में प्रधानमंत्री के हत्यारों को छोड़ दिया जाता है, उसमें आम आदमी को न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है सोचने की बात है। मेरे पिता के हत्यारे छोड़े जा रहे और मैं निराश हूं।

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

हत्या पर राजनीति !


‘सजा-ए-मौत’, तीन शब्दों की यह अदालती टर्मिनोलॉजी अंदर तक हिला कर रख देती है। सजा—ए—मौत यानी हाड़-मांस एक व्यक्ति की सांसों के आगे फुलस्टाप लगा देने की अंतिम न्यायिक लाचारी। इस फैसले के आगे न न्याय की किताब कुछ कहती है और न ही कानून बनाने वाला इंसान कुछ कर सकता है। अर्थात उस व्यक्ति ने ऐसा दुर्लभतम अपराध किया है, जिसके लिए इस सजा से कम कुछ नहीं हो सकता है। हिटलर, जोसेफ मुलोसिनी, पोट पॉल, ईदी अमीन, सद्दाम हुसैन, ओसामा बिन लादेन, ऑगस्टो पिनोशे, मुअम्मर गद्दफी बहुत लंबी लिस्ट है.कुछ ने खुद जान दे दी, कुछ को जनता ने मार दिया और कुछ सिस्टम या सरकार के हाथ मारे गए। जो अप्राकृतिक मौत मरने से बच गए, वे तिल-तिल कर मरे। इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं, जैसे सैन्य शासन द्वारा पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी देने का मामला। खैर कहने का मतलब यह है कि पूरी दुनिया में गुनहगार को कानून द्वारा जल्द से जल्द सजा देने का प्रावधान है। सिर्फ भारत ही इससे अछूता है। अफजल गुरु और कसाब के मामलों को छोड़ दिया जाए तो यहां पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और दूसरे बड़े नेताओ के हत्यारों को मिली मौत की सजा पर सियासी गोटियां चली जाती हैं। मानवीयता और दया की आड़ वोट का कारोबार होता है।

अब चूंकि लोकसभा के चुनाव करीब हैं तो दया की राजनीति हिलोरे लेने लगी है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा पाए कई लोगों की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया था तो उसी समय राजीव गांधी के हत्यारों और दिल्ली बम कांड के दोषी देवेेंदर सिंह भुल्लर के रिश्तेदारों ने अपने वकीलों को सक्रिय कर दिया था।

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

उम्मीदों के मुख्यमंत्री !

सत्यजीत चौधरी  
  पहाड़ की तुलना धैर्य से की जाती है। अडिग—अविचल खड़ा पहाड़ जाने क्या—क्या झेलता है। मौसम की मार, खनन के हथोड़े, हिमपात, बरसात, भूस्खलन....@...लेकिन एक वक्त ऎसा भी आता है, जब पहाड़ का सब्र टूट जाता है। उत्तराखंड में बदरीनाथ में प्रकृति का तांडव हुआ, उसकी भयानक अनुगूंज राजनीतिक गलियारों में भी सुनाई दी। जब इस गूंज को अनसुना कर दिया गया तो विजय बहुगुणा की कुर्सी चली गई और हरीश रावत को मुख्यमंत्री का पद मिल गया।
     कुमाऊं और गढ़वाल के खांचों में बंटे तेरह साल पुराने इस राज्य में गुटबाजी हमेशा हावी रही। कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा की, खेमेबंदी से नहीं उबर पाईं। दोनों ही दलों की सरकार में मुख्यमंत्री को बदलकर हालात बदलने की जुगत को ही निदान मान लिया गया। मर्ज की असली वजह पहचनने की कोशिश नहीं हुई। तेरह—सवा तेरह साल की इस सरकार की कमान संभालने जा रहे हरीश रावत गुटबाजी पर नियंत्रण पाकर कैसे अपनी सरकार बचा पाएंगे, यह वक्त ही बता पाएगा।