मंगलवार, 29 नवंबर 2011

गजब : डॉलर लुटाकर रुपये की लालसा

-अमेरिकी रिटेल कंपनियों ने भारतीय बाजार में अपना रास्ता साफ करने के लिए की है लॉबिंग
सत्यजीत चौधरी
भारत में विदेशी रिटेल कंपनियों की राह आसान होने के पीछे एक बार फिर लॉबिंग का भूत सामने आता दिखाई दे रहा है। अमेरिकी सीनेट में पेश वॉलमार्ट की लॉबिंग डिस्क्लोजर रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी ने रुपए में अपनी पैठ बनाने के लिए भारत में भी जमकर लॉबिंग की है। हालांकि अमेरिका में लॉबिंग को कानूनी मान्यता प्राप्त है लेकिन भारत में इसे आज भी गैर कानूनी ही माना जाता है। दूसरी ओर, देशभर में इस रिटेल कंपनियों के निवेश को लेकर विरोध के स्वर तेज हो गए हैं। देश के कई राज्यों ने इस पर सख्त ऐतराज जताया है तो दूसरी ओर सोमवार को संसद का सत्र भी रिटेल एफडीआई की भेंट चढ़ गया।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

कृषि समस्याओं की अनदेखी

सत्यजीत चौधरी
"अक्सर किसानों को दिलासा के तौर पर उनका कर्ज तो माफ करा दिया जाता है, लेकिन कभी यह सोचने की जरूरत महसूस नहीं की जाती है कि किसान को इस कर्ज की आवश्यकता क्यों पड़ी? किसान कर्ज चुकाने में अक्सर नाकाम क्यों होता है?"
भारत की अर्थव्यवस्था खेतों में लहलहाती फसलों से इतनी मजबूत बन चुकी है कि अमेरिका या दूसरे देशों की आर्थिक मंदी भी इसका बाल बांका नहीं कर पाती है। लेकिन कृषि और किसानों को लेकर हमारे देश की सरकारों का रवैया गंभीर नहीं रहा है। यह दुखद है कि अर्थव्यवस्था के इतने बड़े क्षेत्र और इतनी बड़ी आबादी के हितों के मद्देनजर कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है। हालांकि वोट बैंक को बचाने के लिए सरकारों की ओर से औपचारिक प्रयास किए गए, लेकिन नतीजा आज तक शून्य ही दिखाई देता है। 2007 में कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में बने किसान आयोग की सिफारिशों पर एक राष्ट्रीय नीति बनी थी। इस नीति के तहत तैयार किया गया एक मसौदा भी उस समय की सरकार ने संसद में पेश किया था। खास बात यह है कि तत्कालीन संसद में वह मसौदा पास भी कर दिया गया था, लेकिन उसे लागू कभी नहीं किया जा सका। सवाल यह है कि संसद की मुहर लगने के बाद भी वह नीति क्यों नहीं क्रियान्वित की गई? यह सवाल खेतों में धूल फांकने वाले किसानों को तो जरूर सालता है, लेकिन उन नेताओं को इसकी सुधि नहीं आती, जो किसानों के वोट के आधार पर राजनीति करते हैं। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उस नीति की सुधि ली है। उसने चार साल पहले संसद से पारित होने के बावजूद राष्ट्रीय कृषि नीति लागू न होने पर केंद्र सरकार से जवाब-तलब किया।

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

जाट आरक्षण की हकीकत

सत्यजीत चौधरी
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले जाट आरक्षण का राग छेड़कर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने फिर से इस मुद्दे में उबाल ला दिया है। केंद्रीय नौकरियों में ओबीसी कोटे के तहत जाटों को रिजर्वेशन दिए जाने के मांग कर रहे खांटी जाट, कार्पोरेटी जाट, सियासी जाट और दीगर जाट अब चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार इसपर फैसला ले ले। आश्वासन का च्यूइंगम अब जाट नहीं चबाने वाले।
 वैसे बारीकी से देखा जाए तो पिछले कई सालों से जाट आंदोलन एक ही स्थान पर कदमताल कर रहा है। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस से लेकर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा और उत्तर प्रदेश में अजित सिंह से लेकर मायावती तक चाहते हैं कि जाटों को आरक्षण सुनिश्चित किया जाए। लेकिन साथ ही ये सभी पार्टियां यह भी जानती हैं कि जाटों को आरक्षण का आश्वासन तो दिया जा सकता है, लेकिन हकीकत में ऐसा किया गया तो उत्तर प्रदेश लपटों से घिर जाएगा। इस हकीकत को अजित सिंह बखूबी समझ रहे हैं और शायद यही वजह है कि इस मुद्दे पर वह चुप्पी साधे बैठे हैं, पर जाट राजनीति की दुकान चलाने वाले सक्रिय हैं। इनमें से सबसे ज्यादा एक्टिव हैं कार्पोरेटी जाट नेता। केंद्र के साथ अपने संघर्ष को विराम देने के बावूद कार्पोरेटी जाट नेता धड़ाधड़ दौरे कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की खाक छानते फिर रहे हैं। दरअसल दौरे करते रहने कुछ कार्पोरेटी जाट नेताओं की मजबूरी है। मिसाल के तौर पर अखिल भारतीय जाट संघर्ष समिति को लें। नेतृत्व के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश और हरियाणा में समिति का एक-बटा दो और दो बटा चार हो चुका है। बची—खुची सियासी जमीन को बचाए रखने के लिए दौरे करना जरूरी हो गया है।