शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

जाट आरक्षण की हकीकत

सत्यजीत चौधरी
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले जाट आरक्षण का राग छेड़कर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने फिर से इस मुद्दे में उबाल ला दिया है। केंद्रीय नौकरियों में ओबीसी कोटे के तहत जाटों को रिजर्वेशन दिए जाने के मांग कर रहे खांटी जाट, कार्पोरेटी जाट, सियासी जाट और दीगर जाट अब चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार इसपर फैसला ले ले। आश्वासन का च्यूइंगम अब जाट नहीं चबाने वाले।
 वैसे बारीकी से देखा जाए तो पिछले कई सालों से जाट आंदोलन एक ही स्थान पर कदमताल कर रहा है। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस से लेकर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा और उत्तर प्रदेश में अजित सिंह से लेकर मायावती तक चाहते हैं कि जाटों को आरक्षण सुनिश्चित किया जाए। लेकिन साथ ही ये सभी पार्टियां यह भी जानती हैं कि जाटों को आरक्षण का आश्वासन तो दिया जा सकता है, लेकिन हकीकत में ऐसा किया गया तो उत्तर प्रदेश लपटों से घिर जाएगा। इस हकीकत को अजित सिंह बखूबी समझ रहे हैं और शायद यही वजह है कि इस मुद्दे पर वह चुप्पी साधे बैठे हैं, पर जाट राजनीति की दुकान चलाने वाले सक्रिय हैं। इनमें से सबसे ज्यादा एक्टिव हैं कार्पोरेटी जाट नेता। केंद्र के साथ अपने संघर्ष को विराम देने के बावूद कार्पोरेटी जाट नेता धड़ाधड़ दौरे कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की खाक छानते फिर रहे हैं। दरअसल दौरे करते रहने कुछ कार्पोरेटी जाट नेताओं की मजबूरी है। मिसाल के तौर पर अखिल भारतीय जाट संघर्ष समिति को लें। नेतृत्व के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश और हरियाणा में समिति का एक-बटा दो और दो बटा चार हो चुका है। बची—खुची सियासी जमीन को बचाए रखने के लिए दौरे करना जरूरी हो गया है।
    इस मामले में जहां तक बसपा सरकार की नीयत का सवाल है तो वह भी सिर्फ सियासत कर रही है। उत्तर प्रदेश में सन् 2000 में भाजपा के शासनकाल में जाटों का आरक्षण दिया गया था। उस समय केंद्र की नौकरियों में ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण की मांग किसी ने नहीं उठाई। बाद में राजस्थान में गुर्जरों ने जब आरक्षण का आंदोलन छेड़ा तो उत्तर प्रदेश के जाट नेताओं में भी हलचल हुई। हकीकत तो यह है कि जाट अगर किसी पर आंख मूंदकर विश्वास करता तो वह है चौधरी चरण सिंह के परिवार पर और यही वजह है कि वे राष्टÑीय लोकदल के परंपरागत वोटर हैं। बागपत, मुजफ्फरनगर, बुलंदशहर, मेरठ, बिजनौर, अमरोहा, मथुरा, गाजियाबाद, आगरा, अलीगढ़, सहारनपुर जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों में ज्यादातर सीटों पर जाट चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। अब कांग्रेस और रालोद के रिश्ते परवान चढ़ता देख बसपा को खतरे की घंटी साफ सुनाई दे रही है। मायावती समझ रही हैं कि एक न एक दिन कांग्रेस के साथ रालोद का गठबंधन होना है, लिहाजा उन्होंने जाटों को आरक्षण की हिमायत के साथ प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख डाली। इस साल मार्च में जब जाटों ने अमरोहा के काफूरपुर रेलवे स्टेशन पर डेरा डाला था, तब भी मायावती ने आंदोलन को समर्थन देकर गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल दी थी।
मायावती जानती हैं कि इस बार विधानसभा के चुनाव इतने आसान नहीं होंगे। पार्टी को पश्चिम यूपी में अपनी पकड़ और मजबूत करनी होगी। मायावती इस समय दो बड़ी मुहिम पर काम कर रही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में वह कायस्थ वोट बैंक को समेटने की कोशिश में हैं तो पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट समर्थन पर काम कर रही हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर छह जाट विधायक बने थे। मायावती इस फीगर में इजाफा चाह रही हैं। मायावती यह भी जानती हैं कि जाटों को आरक्षण का मुद्दा केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पास लंबित है। जब तक आयोग अपनी रिपोर्ट नहीं दे देता केंद्र सरकार कुछ नहीं कर सकती। इसके बावजूद वह जाटो को चुग्गा डालने के लिए केंद्र पर दबाव बना रही हैं।
जहां तक अजीत सिंह का सवाल है, उन्होंने जाट आरक्षण के मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है। अलबत्ता उनके पुत्र और सांसद जयंत चौधरी खुलकर जाट आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं। जयंत भूमि अधिग्रहण मामले की तरह जाट आरक्षण को पूरी तवज्जो दे रहे हैं। 
वैसे मायावती के जाट कार्ड की हकीकत से भी रालोद वाकिफ है। यही वजह है कि इधर मायावती ने जाटों को आरक्षण देने की मांग वाला पत्र पीएमओ को डिस्पैच किया, उधर रालोद ने बसपा की नीयत पर शक जाहिर कर दिया। रालोद के प्रदेश महासचिव राजेंद्र चिकारा ने सवाल खड़ा किया कि मायावती पिछले साढ़े चार साल से सत्ता में हैं। जून, 2009 में जब केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय ने प्रदेश सरकार से प्रस्ताव मांगा था तब मुख्यमंत्री कहां थी। पार्टी का कहना है कि जाट सरकार की चाल को समझ रहे हैं। मायावती को क्यों ऐन चुनाव से पहले जाटों के हित दिखाई देने लगे।
उत्तर प्रदेश में पिछले कई सालों से सत्ता के हाशिये पर खड़ी कांग्रेस जानती है कि जाटों को आरक्षण देने का मतलब है कि दूसरी पिछड़ी जातियों को भड़का देना। पार्टी यह भी जानती है कि जाट उससे चिढ़े बैठे हैं। अजित सिंह के साथ गठबंधन शायद कांग्रेस ने रणनीति के तहत किया है। अजित सिंह जाटों को संभाल लेंगे।
जहां तक भाजपा का मामला है तो उसे जातिगत समीकरण कभी सूट नहीं करते। साहिब सिंह संस्कारों वाले नेता थे। सभी दलों में उनकी इज्जत थी। दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे हों, लोकसभा के मेंबर या सत्ता से अलग रहकर पार्टी के लिए काम किया हो, उनका पूरा राजनीतिक कैरियल विवादों से परे साफ-सुथरा रहा। जाट समुदाय में भी उनकी धाक थी। उनके निधन के बाद जो वेक्यूम पैदा हुआ, उसे भरने के लिए भाजपा के पास कद्दावर जाट नेता नहीं मिला। सपा का भी हाल कांग्रेस और भाजपा से जुदा नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस पार्टी ने जाटों की तरफ कोई खास तव्वजो नहीं दी। यही वजह है कि कभी मुलायम की सरकार में बेसिक शिक्षा मंत्री रहे किरन पाल सिंह अब रालोद का दामन थाम चुके हैं। कई और जाट नेता सपा को गुडबाई कह चुके हैं।
जाट आरक्षण आंदोलन ने कई नए चेहरे दिए हैं। इनमें से एक हैं यशपाल मलिक। मलिक की कोई राजनीति पृष्ठभूमि नहीं है। एयरफोर्स से रिटायर होकर बिल्डर बन गए थे। इसी बीच, राजस्थान में गुर्जर आंदोलन का शंखनाद हो गया। उन्हें लगा सियासत चमकाई जा सकती है, सो कूद पड़े मैदान में।  कभी पानी तो कभी रेल रोककर उन्होंने अपनी रणनीति से केंद्र सरकार को बार-बार छकाया। बताते हैं कि कें सरकार भले ही आरक्षण की मांग को तकनीकी आधार बनाकर टाल रही हो, लेकिन यशपाल मलिक पर कांग्रेस का पूरा ध्यान है। मलिक ने अपर गंगा कैनाल का पानी रोककर दिल्ली में त्राहिमाम मचा दिया था। हरियाणा के मय्यड़ उग्र आंदोलन चलाया। मलिक के नेतृत्व में आंदोलनकारियों ने उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कई दिनों तक कई रेल सेक्शनों में परिचालन ठप रखा, लेकिन केंद्र सरकार ने यशपाल मलिक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। मौजूदा समय में जाट आंदोलन की बागडोर यशपाल मलिक के हाथ में ही है, लेकिन उनके संगठन को भारी विघटन भी झेलना पड़ रहा है। एसपी सिंह परिहार समेत कई बड़े नेता समिति को छोड़ जा चुके हैं। आंदोलन की जमीन पर मजबूत से अपने पैर जमाए रखने के लिए यशपाल मलिक को लगातार दौरे करने पड़ रहे हैं।
कहा जा सकता है कि मलिक और कांग्रेस एक-दूसरे का इस्तेमाल कर रहे हैं। कांग्रेस ने मलिक को एक ऐसा जाट कार्ड की तरह छिपाकर जेब में रखा हुआ, जिसका इस्तेमाल अजित सिंह से मनमुटाव की सूरत में हो सकता है।
पिछले दिनों अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के बैनर तले कई राज्यों के जाटों ने जब दिल्ली में डेरा डाला था तो मैं वहां कवरेज के लिए मौजूद था। मैंने रैली में आए उत्तर प्रदेश के जाटों से पूछा था कि क्या उन्हें आरक्षण चाहिए। कई का समवेत उत्तर था—चाहिए तो नहीं, लेकिन इब आ गए हैं तो लैके ही जावेंगे।
यह एक ईमानदार स्वीकारोक्ति थी। जाट जानता है कि जब तक उसके शिक्षा का स्तर नहीं सुधरेगा, आरक्षण लेने का कोई मतलब नहीं। रैली में मौजूद कई ग्रामीणों ने इस बात पर दुख जताया कि जाट नेतृत्व आरक्षण की मांग कर रहा है। केंद्र के साथ मरने—मारने पर उतारू है, लेकिन जाट कौम के शिक्षा के स्तर को ऊपर उठाने के लिए कुछ नहीं कर रहा है।

1 टिप्पणी:

Avinash ने कहा…

Jat Reservation is meant only for poor Jats who live in remote villages & do not have adequate resources & cannot afford quality education.
Constitution supports Caste based reservation so it cannot be removed .
Jat unity is required to attain Jat reservation.
One cannot say whole Jat community is rich because 10% Jats are rich.