बुधवार, 28 मई 2014

राम भरोसे केदारनाथ के दर्शन

सत्यजीत चौधरी
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।
       महान कवि जयशंकर प्रसाद के कालजयी महाकाव्य कामायनी के चिंता सर्ग की ये दो लाइनें पिछले साल भी दिमाग में कौंधी थीं, जब जल प्रलय ने उत्तराखंड के एक बड़े हिस्से को झिंझोड कर मलबे में तब्दील कर दिया था। इस साल जब केदारनाथ की वाॢषक यात्रा शुरू हुई तो मेरे अंदर बैठा मनु (कामायनी का मुख्य चरित्र) बेचैन हो उठा। चल पड़ा हिमगिरि के उत्तुंग शिखर की तरफ, ताकि देख सके कि प्रकृति द्वारा लहूलुहान पुरुष अपने जख्मों को कितना भर पाया है। ढेरों सवाल थे। बाबा केदारनाथ की नगरी तक जाने वाले वे रास्ते और पुल क्या फिर बन पाए, जिन्हें बाढ़ बहा ले गई थी? वैकल्पिक पैदल मार्ग कैसा है और उसपर कैसी सुविधाएं हैं? जिन धर्मशालाओं और गेस्ट हाउसों को बाढ़ बहा ले गई थी, क्या वे फिर से आबाद हो पाए हैं? क्या तीर्थयात्रियों की ठहरने, खाने—पीने और स्वास्थ्य सेवा फिर से बहाल हो पाई है?

शनिवार, 17 मई 2014

अब मोदी होने का मायने-मतलब 

सत्यजीत चौधरी
    तमाम पूर्वानुमानों को ध्वस्त करते हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रचंड बहुमत लाकर साबित कर दिया कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लडऩे का उसका फैसला एकदम सही था। इस चुनाव में जनाकांक्षाके प्रतीक बनकर उभरे मोदी ने जीत के लिए जान लड़ा दी और नतीजे अनुकूल से कहीं ज्यादा आए। चुनाव के दौरान और नतीजों के बाद मोदी लार्जर देन लाइफ बनकर उभरे। अब मोदी की बड़ी तस्वीर से कहीं बड़ी वे उम्मीदें हैं, जो पूरे देश ने लगा रखी हैं। यानी अच्छे दिन की आस, जिसका वादा पार्टी और मोदी प्रचार के दौरान करते रहे हैं।
       पहले हमें जनाकांक्षा को समझना होगा। याद करें अन्ना का आंदोलन। 2011 में इस आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हुई और 2012 तक आंदोलन जवान हो गया। लोग सिस्टम से खफा थे। भ्रष्टाचार, विकास, महंगाई, नक्सलवाद, महिलाओं की सुरक्षा, कश्मीर, सडक़, बिजली और पानी जैसे मुद्दों पर सरकार की चुप्पी युवाओं से भरे भारत को निराश कर रही थी। बस यही टर्निंग प्वाइंट था, जिसे भाजपा और संघ ने भांपा और उतार दिया मोदी को मैदान में। कांग्रेस लोगों के गुस्से को समझ ही नहीं पाई। आंदोलन में अरविंद केजरीवाल के कूदने और उसे राजनीतिक स्वरूप देने की कोशिशों के चलने अन्ना मुहिम से अलग हो गए। दिल्ली के चुनाव में के केजरीवाल ने अन्ना की वैचारिक विरासत को कैश कर लिया। फिर अपने ही ऊंटपटांग फैसले के चलते हाशिये पर चले गए। मैनेजमेंट के माहिर मोदी चुपचाप पब्लिक की पल्स को समझते रहे। फिर 2013 में जब आम चुनाव का ऐलान हुआ तो मोदी पूरे होमवर्क के साथ मैदान में कूद पड़े। 2जी—3जी घोटालों, कॉमवेल्थ घपले और कोलगेट स्कैम की पर्तों को उघाड़ते मोदी ने महंगाई और अव्यवस्था से परेशान लोगों के सामने अन्ना के दर्द को अपनी शब्दावली के साथ पेश किया। लोगों को लगा कि मसीहा आ गया है।

सोमवार, 12 मई 2014

कुर्सी से पहले पड़ोसियों को साधने की कवायद

सत्यजीत चौधरी       
     लोकसभा चुनाव के नतीजे आने में अभी काफी समय है, लेकिन चरण दर चरण मतदान के बाद जीत के विश्वास से लबरेज नरेंद्र मोदी मेराथन रैलियों के बीच घरेलू और विदेश नीतियों को समझने और समझाने में भी जुट हुए हैं। विदेश नीति को विशेष रूप से फोकस कर रहे हैं। पड़ोसियों के दिमाग में उपज रहे संशय के बादलों को छांटने के साथ ही वह होमवर्क भी कर रहे हैं, ताकि जिम्मेदारी मिलने के साथ ही बेहतर रिश्तों की तरफ कदम बढ़ाया जा सके। 
     
        भाजपा को अगर केंद्र में सरकार बनाने का मौका मिलता है तो मोदी के लिए सबसे मुश्किल काम होगा अमेरिका को साधना। ओबामा प्रशासन ने अभी तक खुलकर कोई ऐसा संकेत नहीं दिया है कि मोदी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार के प्रति उसका क्या रवैया होगा। पाकिस्तान के साथ ठहरी बातचीत को फिर से पटरी पर लाना और विश्वास बहाली का माहौल तैयार करना मोदी के लिए दूसरी बड़ी चुनौती होगी। मोदी ने इस चुनौती से निपटने की तैयारी अभी से शुरू कर दी है। अंग्रेजी समाचारपत्र द हिंदू की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि नरेंद्र मोदी के दो सलाहकारों ने हाल में पाकिस्तान का दौरा कर वहां मुस्लिम लीग के नेताओ से बातचीत की थी। पाकिस्तान मुस्लिम लीग—नवाज ही की वहां केंद्र और पंजाब प्रांत में सत्ता है। पाकिस्तान में आधिकारिक सूत्रों के हवाले से इस मुलाकात के बारे में द हिंदू ने लिखा है कि मोदी के दोनों अज्ञात दूतों ने मुस्लिम लीग के नेताओ से क्या बातचीत की, इसका खुलासा नहीं हो सका, लेकिन भारत में मौजूदा चुनावी परिदृश्य और भविष्य को लेकर मिल रहे संकेतों के मद्देनजर ये मुलाकात काफी अहम है। दूतों को भेजकर मोदी ने यह साफ करने की कोशिश की है कि अगर वह प्रधानमंत्री बनते हैं तो भारत—पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय रिश्तों पर वह ग्रेनेड फेंकने नहीं जा रहे हैं।

शुक्रवार, 2 मई 2014

क्या आरक्षण का डोज जाट लैंड में बदलेगा समीकरण

Published  12 March 2014 in Hari Bhoomi 
सत्यजीत चौधरी
       बात एक अटपटे प्रसंग से शुरू कर रहा हूं। तीन मार्च को केंद्रीय कैबिनेट की बैठक थी। माना जा रहा था कि मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में चल रही बैठक में भ्रष्टाचार निरोधी ऑर्डिनेंस पर कोई फैसला आ सकता है, लेकिन कैबिनेट ने जाट बिरादरी को पिछड़ी जातियों की केंद्रीय सूची में शामिल करने का एेलान कर दिया। इसमें नया कुछ नहीं था। माना जा रहा था कि मनमोहन सिंह चुनाव से पहले इसका ऐलान कर सकते हैं। हैरत की बात यह है कि कैबिनेट द्वारा जाटों को लेकर ऐलान से काफी पहले शाम को पश्चिमी यूपी आेैर दिल्ली के कुछ समाचारपत्रों में रालोद नेता और केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह का आभार वाला एक पेज का विज्ञापन पहले पहुंच गया। इस दो बातें साबित हुईं, पहली यह कि इस फैसले को एेन चुनाव से पहले अमली जामा पहनाने में अजित सिंह की बड़ी भूमिका थी और दूसरा यह कि केंद्रीय सेवाओ और शिक्षण संस्थानों में ओबीसी कोटे के तहत जाटों को आरक्षण देकर कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि पश्चिमी यूपी में वह चुनाव अजित सिंह के नेतृत्व में लड़ेगी।
     केंद्र सरकार के इस फैसले ने रालोद में जोश का बारूद भर दिया है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद छोटे चौधरी की चुप्पी ने रालोद के सामाजिक समीकरण पर असर पड़ा था। यहां तक कि कहा जाने लगा कि बागपत समेत कई अन्य जिलों में अजित सिंह के प्रति जाट समुदाय की प्रतिबद्धता डगमगाने की बात होने लगी थी। अजित और जयंत के सामने जाटलैंड में अपनी विरासत को सहेजने की चुनौती थी। इसके लिए रालोद ने पदयात्रा से लेकर तमाम तीर तरकश से छोड़े। आखिर में चौ. अजित सिंह ने केंद्र सरकार से साफ-साफ कह दिया कि अगर पश्चिमी यूपी में भाजपा को रोकना है तो जाट आरक्षण का ब्रह्मा चलना ही पड़ेगा। दरअसल यूपीए—2 सरकार जाटों को आरक्षण देने से हिचक रही थी। कई कारण थे। मुजफ्फरनगर दंगों की पृष्ठभूमि में पैदा हालात में पश्चिमी यूपी में कांग्रेस को लेकर मुसलमान और बिदकने का खतरा है। दूसरी जातियां भी आरक्षण का मुद्दा उठा सकती थीं।

मुश्किल होती कांग्रेस की राहें !

सत्यजीत चौधरी 
      कहते हैं मुसीबत में साया भी साथ छोड़ देता है। यही हाल कांग्रेस का हो रहा है। नरेंद्र मोदी की हवा और आम आदमी पार्टी की धमक के चलते कांग्रेस हाशिये की तरफ खिंचती नजर आ रही है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में पार्टी के वरिष्ठ नेता साथ छोड़ रहे हैं तो तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में अपने ही जख्म दे रहे हैं। बिहार में हाल में राजद के साथ कांग्रेस के गठबंधन में मिठास कम और खटास ज्यादा है। 

द्रमुक ने दिया दर्द 
आखिरी क्षणों में पलटी मारकर कांग्रेस के लिए दरवाजे बंद करते हुए द्रमुक ने पिछले दिनों तमिलनाडु में 35 और पुडुचेरी की एक लोकसभा सीट पर अपने उम्मीदवारों की सूची का ऐलान कर दिया कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी। भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने के बाद जिन दो मंत्रियों, ए राजा और दयानिधि मारन को द्रमुक ने फिर से उम्मीदवार बना दिया है। पिछले साल यूपीए से अलग होकर द्रमुक ने साफ कर दिया था कि भविष्य में वह कांग्रेस से कोई नाता नहीं रखेगी। अब हालात ये हैं कि तमिलनाडु कांग्रेस अलग—थलग सी पड़ गई है। यहां 24 अप्रैल को वोट पडऩे हैं। राज्य में लगभग सभी पार्टियों ने उससे दूर रहना पसंद किया है।
      पूर्व गठबंधन सहयोगी द्रमुक द्वारा चुनावी तालमेल का दरवाजा बंद करने और डीएमडीके के भाजपा की तरफ रुझान के बाद कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा हो गई है। अब तक कांग्रेस तमिलनाडु में दो प्रमुख द्रविड़ पाॢटयां—द्रमुक और अन्ना द्रमुक के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की आदी रही है। अब यहां 1998 की तरह का परिदृश्य बनता दिख रहा है। तब कांग्रेस की झोली में एक भी सीट नहीं आई थी।
     कांग्रेस के अलग—थलग पडऩे के और भी कारण हैं। कांग्रेस ने राजीव गांधी हत्याकांड मामले में सात दोषियों की रिहाई का विरोध किया था। इससे भी उसकी परेशानियां बढ़ी हैं। अन्नाद्रमुक प्रमुख एवं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता ने इस हत्याकांड में उम्रकैद की सजा पाए सात दोषियों की रिहाई का निर्देश दे कर इस संवेदनशील मुद्दे पर बाजी मार ली। उसके घोर विरोधी द्रमुक ने भी रिहाई का समर्थन किया।
     अब चलते हैं आंध्र प्रदेश। विभाजन से पहले आंध्र प्रदेश में अप्रैल-मई में लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव होने हैं और विभाजन के बाद बनने वाले दोनों राज्यों में कांग्रेस की हालत खराब है।