रविवार, 22 सितंबर 2013

हरित प्रदेश के भाईचारे का पंचनामा ........

सत्यजीत चौधरी 
        अखबारों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों के हालात को बयां कर रही सुर्खियों का रंग वाकई लाल है। इंसानी खून में लिथड़ा—लिपटा, सड़ांध मारता। लाशें गिनी जा रही हैं, मुआवजे तय हो रहे हैं। नाकारा साबित हुए हाकिम—हुक्कामों को हटाया जा रहा है। केंद्र से और बंदोबस्ती मदद मांगी जा रही है। मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ और बागपत में बढ़ रही बारूदी घुटन से आसपास के जिलों के लोग दहशत में हैं। इन तमाम आपाधापियों के बीच इंसानियत एक कोने में हाथ बांधे खड़ी है, कई सवालों के साथ। सवाल, जिनका आज जवाब नहीं तलाशा गया तो वक्त का मुहर्रिर अपनी किताब में लिखेगा—पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वो कौमें आपस में उलझ गईं, जो कभी घी—बूरे की तरह एक-दूसरे में घुली रहती थीं। जो सिर्फ काश्त करना जानती थीं। साथ ही प्यार और भाईचारे की फसल भी बोती—काटती थीं। इन दोनों कौमों को सियासत नहीं आती। इनकी राजनीति तो बस गन्ने और खाप—पंचायतों तक सीमित थी। खान—पान में भले ही परहेज हो, लेकिन शादी—ब्याह, सगाई और त्योहारों में एक-दूसरे को नोतना नहीं भूलते थे। मरनी—करनी साझा गम और मातम होता था। हक-हुकूक की लड़ाइयां मिलकर साथ लड़ीं। वक्त का मुहर्रिर सवालिया निशान के साथ यह भी लिखेगा कि शहर से भेजे गए नफरत के अंगारों को गांव वालों ने कैसे अपने इलाके में घुसने दिया।