शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

कब मिलेगा पश्चिमी यूपी को 'इंसाफ'

सत्यजीत चौधरी
     एक बड़े औद्योगिक हब में ढल रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ पिछले कई दशकों से छल हो रहा है। सबसे ज्यादा राजस्व देकर देश और प्रदेश के आर्थिक विकास को गति देने वाले उत्तर प्रदेश के इस हिस्से की कई मांगों को दशकों से नजरंदाज किया जा रहा है। राज्य का पुनर्गठन कर छोटे राज्यों को आकार देने की पुरानी मांग पर तो सियासत चल रही है, अच्छी सडक़ें, रेल क्षेत्र का विस्तार जैसी मांगें भी अनदेखी की जा रही हैं। इनमें एक और महत्वपूर्ण मांग को राजनीतिक दलों ने वर्षों से कांख के नीचे दबा रखा है। यह है पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट की बेंच की मांग। यहां पृथक बेंच की स्थापना को लेकर दशकों से आंदोलन चल रहा है। कभी आंदोलन की आंच मद्धम पड़ जाती है तो कभी तेज हो जाती है, लेकिन राज्य और केंद्र की सरकारों ने जनता और
इलाके के वकीलों की सस्ता न्याय पाने की इस जायज मांग को लेकर कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई है।

सांसत में पश्चिम के मुवक्किल
    इलाहाबाद हाईकोर्ट में चल रहे मुकदमों की पैरवी पश्चिमी यूपी के लोगों के लिए कई तरह से झंझटों और परेशानी भरा काम है। एक आम आदमी जिला न्यायालय से वाद हारने के बाद हाईकोर्ट में अपील करने के बारे में सोचकर ही कांप उठता है। कई मामलों में लोग थक-हार कर जिला न्यायालय के फैसले को सिर-माथे लगा लेते हैं और जो मुकदमा आगे लडऩे की हिम्मत जुटा पाते हैं, उनके लिए इलाहाबाद तक का लंबा सफर तय कर पहुंचना और वकीलों की फीस भरना किसी डरावने सपने सरीखा होता है। मेरठ को मानक मानकर चलें तो यहां के मुवक्किल को इलाहाबाद तक के करीब सात सौ किलोमीटर का सफर ट्रेन से तय करने में दस से बारह घंटे तक का समय लगता है।
      कई बार मुवक्किल को अपने वकील के बस्ते पर पहुंचकर पता चलता है कि आज कोर्ट नहीं बैठेगी। कई बार हड़ताल हो जाती है। कई मौकों पर दूसरी पार्टी अगली तारीख का जुगाड़ कर लेती है। एेसे मौकों पर वकील तो अपनी फीस ले लेता है और बेचार मुवक्किल लुटे होने के अहसास के साथ लौट आता है।
    दूसरी समस्या भाषा, खानपान और होटल में ठहरने की है। हाईकोर्ट के आसपास सरकार ने दूर-दराज से आए मुवक्किलों के ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं की है। अगर इलाहाबाद हाईकोर्ट की बेंच लखनऊ के अलावा मेरठ या मुजफ्फरनगर में स्थापित कर दी जाए तो लोगों को ज्यादा सुविधा रहेगी। ये दोनों शहर रेल और सडक़ मार्ग से जुड़े हैं। आने वाले समय में मोनो रेल चलने से यात्रा और भी सुगम हो जाएगी। समय और खर्च, दोनों परेशानी से लोग बच जाएंगे। 

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

फोन टैप के ट्रैप

सत्यजीत चौधरी
     तकनीक के जिन पहियों पर सवार होकर हम विकास की मंजिलें तय कर रहे हैं, उनमें से एक अदृश्य पहिया है निगरानीतंत्र। आम बोल-चाल की भाषा में कहा जाए तो जासूसी। इस बगैर न सरकारें चलती हैं और न ही उसका सिस्टम। न बाजार चलता है और न ही कारोबार। प्यार-व्यार में भी यह दखल बना चुका है। संचार क्रांति के उन्नत शिखर पर खड़ी 21 वीं सदी की तकनीक व्यक्ति की निजता की रक्षा के लिए ताले बाद में बनाती है, उसे खोलने वाली सौ चाबियां पहले बन जाती हैं। इस निगरानीतंत्र का एक अहम हिस्सा है फोन टैपिंग। फोन टैपिंग तब से हो रही, जब से फोन अस्तित्व में आया है। पहले एक बड़े शहर में कुछ एक फोन होते थे अब एक छोटे से कस्बे में लाखों मोबाइल फोन होते हैं। काम मुश्किल है, लेकिन पुलिस, पैसे और पॉलिटिक्स हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है।
   दरअसल देखा जाए तो हमारा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक ढांचा ही इस तरह का हो गया है, जहां हर तरफ अविश्वास के नाग फन काढ़े खड़े हैं। विभीषणों और मीर जाफरों को पहचानना मुश्किल होता जा रहा है। इसका सस्ता और सुगम समाधान है फोन टैपिंग। असल बात पर आया जाए तो देश भर में दस लाख से ज्यादा फोन (मोबाइल+लैंडलाइन) कनेक्शन पूरे साल सरकार की निगरानी में रहते हैं।

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

हरिभूमि के संपादक ओमकार चौधरी को भानुप्रताप शुक्ल सम्मान

 नीरज ने  ओमकार चौधरी की पुस्तक  ‘डन डन लन्दन’ का का विमोचन किया 
   
हरिभूमि के संपादक ओमकार चौधरी को इस वर्ष के भानुप्रताप शुक्ल स्मृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. विकल्प संस्था की ओर से हर वर्ष महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री के जन्म दिवस की पूर्व संध्या पर होने वाले कवि सम्मलेन में श्री चौधरी के अलावा नवभारत टाइम्स के दिलबर गोठी को भी इस सम्मान से नवाजा गया. इस अवसर पर जाने-माने गीतकार गोपाल दास नीरज ने श्री चौधरी की सातवीं पुस्तक डन डन लन्दन का विमोचन भी किया. यह पुस्तक लन्दन की उनकी हाल ही की यात्रा का रोचक वृतांत है, जिसे अक्षरधाम प्रकाशन कैथल ने प्रकाशित किया है. इसी साल ओमकार चौधरी की एक अन्य पुस्तक खास मुलाकातें भी प्रकाशित हुई है, जिसका विमोचन अगस्त माह में स्वामी रामदेव ने किया था.

रविवार, 22 सितंबर 2013

हरित प्रदेश के भाईचारे का पंचनामा ........

सत्यजीत चौधरी 
        अखबारों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों के हालात को बयां कर रही सुर्खियों का रंग वाकई लाल है। इंसानी खून में लिथड़ा—लिपटा, सड़ांध मारता। लाशें गिनी जा रही हैं, मुआवजे तय हो रहे हैं। नाकारा साबित हुए हाकिम—हुक्कामों को हटाया जा रहा है। केंद्र से और बंदोबस्ती मदद मांगी जा रही है। मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ और बागपत में बढ़ रही बारूदी घुटन से आसपास के जिलों के लोग दहशत में हैं। इन तमाम आपाधापियों के बीच इंसानियत एक कोने में हाथ बांधे खड़ी है, कई सवालों के साथ। सवाल, जिनका आज जवाब नहीं तलाशा गया तो वक्त का मुहर्रिर अपनी किताब में लिखेगा—पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वो कौमें आपस में उलझ गईं, जो कभी घी—बूरे की तरह एक-दूसरे में घुली रहती थीं। जो सिर्फ काश्त करना जानती थीं। साथ ही प्यार और भाईचारे की फसल भी बोती—काटती थीं। इन दोनों कौमों को सियासत नहीं आती। इनकी राजनीति तो बस गन्ने और खाप—पंचायतों तक सीमित थी। खान—पान में भले ही परहेज हो, लेकिन शादी—ब्याह, सगाई और त्योहारों में एक-दूसरे को नोतना नहीं भूलते थे। मरनी—करनी साझा गम और मातम होता था। हक-हुकूक की लड़ाइयां मिलकर साथ लड़ीं। वक्त का मुहर्रिर सवालिया निशान के साथ यह भी लिखेगा कि शहर से भेजे गए नफरत के अंगारों को गांव वालों ने कैसे अपने इलाके में घुसने दिया।

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

हिमालय की संतानों की सुध कौन लेगा !!!

सत्यजीत चौधरी 
सीना ताने खड़े पहाड़ मनुष्य को धैर्य, शक्ति, जीवटता, अभिमान और स्थायित्व जैसे जीवन तत्वों का साक्षात्कार कराते हैं। विश्वविख्यात रूसी पर्वतारोही एनातोली बोखीरीव की डायरी के एक पन्ने पर दर्ज है, पहाड़ कोई स्टेडियम नहीं है, जहां मैं अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करूं। पहाड़ तो गिरजाघर हैं, जहां मैं अपने धर्म के कर्म को पूरा करता हूं। वाकई इन पूजनीय पहाड़ों को हमने अपनी लालच, महात्वाकांक्षाओ और आर्थिक विकास का स्टेडियम बना दिया है। पहाड़ों के सीने से हरियाली नोच—नोचकर हम उसमें कंक्रीट भरते जा रहे हैं। नतीजा उत्तराखंड के रूप में हमारे सामने है।

बुधवार, 15 मई 2013

जाट आरक्षण का टूटता, बिखरता भटकता रण

सत्यजीत चौधरी
  
अब यह समझना मुश्किल हो गया है कि जाट ज्यादा भोले हैं या आरक्षण के मुद्दे पर उनका कथित नेतृत्व कर रहे नेता और सरकारें ज्यादा चालाक। आजाद भारत के इतिहास अब तक इतना भटका, बिखरा और संदेहों से भरा कोई आंदोलन नहीं हुआ है। इस आंदोलन का सबसे दुखद पहलू है इसका कोई असली माई-बाप न होना। लगातार पैदा हो रहे नेता आंदोलन की ताकत लगातार बंट और बिखरा रहे हैं। पर्दे के पीछे चल रही चल रहीं दुरभि संधियां आंदोलन की रीढ़ पर सतत वार कर रही हैं।
    जाट आरक्षण की मांग को लेकर अपनी दुकानों के साथ ढेरों नेता मैदान में हैं। दो—तीन बड़े संगठनों जैसे अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति (पार्ट वन और पार्ट टू) और संयुक्त जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में ढेरों जाट संगठन उग आए हैं। हद तो यह है कि हाल में ही दिल्ली स्थित मावलांकर हॉल में अखिल भारतीय जाट महासम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमे पूर्व केंद्रीय मंत्री नटवर सिंह और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ के अलावा हरियाणा का मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने शिरकत की। हरियाणा और पंजाब के कई पूर्व और मौजूदा मंत्री सम्मेलन में मौजूद थे। इस दौरान समुदाय के नेताओ ने आरक्षण की लड़ाई को धार देने के लिए आंदोलन की कमान तेज-तर्रार नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय सिंह को सौंपने का निर्णय लिया। यानी आरक्षण के मुद्दे पर एक और जाट नेता का उदय।
    दरअसल जाट आरक्षण आंदोलन की बासी—सी हो चली कढ़ी में एक बार फिर उबाल लाने की कोशिश की जा रही है। इस आंदोनल का स्वरूप शुरू से ही उग्र रहा है। कभी दिल्ली को पानी की सप्लाई रोककर तो कभी निषेध को तोडक़र कांग्रेस अध्यक्ष के आवास की तरफ कूच कर जाट नेता लगातार उद्दंड तेवर दिखाते रहे हैं। हाल में दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर एक गुट ने दूसरे को धरने को हाईजैक करने की कोशिश की। हाल में ही केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के सरकारी आवास में कुछ जाट आंदोलनकारियों ने घुसकर तोडफ़ोड़ की।

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

विकास के लिए जरूरी है सही ऊर्जा स्रोत की खोज

सत्यजीत चौधरी
    सिर पर सवार सूरज अग्नि वर्षा कम करने को तैयार नहीं है। पारा नई-नई ऊंचाइयां गढ़ रहा है। राजधानी दिल्ली से लेकर सबसे पिछड़े राज्य बिहार में बिजली की किल्लत से हाहाकार मचा हुआ है। बिजली नहीं है तो पानी भी नदारद है, लिहाजा जनता जर्नादन प्यास से भी बिलबिला रही है। ऐसी ही हालत कुछ देश की आर्थिक सेहत की है। गंभीर संकट से गुजर रहे देश में रुपए और सकल घरेलू उत्पाद का गिरना यह बता रहा है कि देश की आर्थिकसेहत किस खतरनाक हद तक गिर चुकी है। पिछले एक पखवाड़े से तमाम आर्थिक परेशानियां, रुपए के अवमूल्यन और गिरती उत्पाद दर को भूलकर हमारे सियासतदां राष्ट्रपति चुनने की कवायद में जुटे हैं। स्टैंडर्ड एंड पूवर्स की रेटिंग चेतावनी को नजरंदाज कर सरकार निश्चिंत है कि हालात सुधार लिए जाएंगे, लेकिन सरकार चाहे जितनी बेफिक्र हो, हकीकत तो यह है कि आर्थिक नाकामियों, बढ़ती महंगाई और सरकार की अस्थिर हालत ने जनता को गहरे अवसाद में डाल दिया है। पेट्रोल की बढ़ी कीमतों से जनता अभी उबरी भी नहीं थी कि प्रचंड गर्मी में उसे बिजली और पानी के संकट ने घेर लिया है।

यातनागृह में तब्दील होते शिक्षा के मंदिर


यातनागृह में तब्दील होते शिक्षा के मंदिर
सत्यजीत चौधरी

    अंग्रेजी में एक कहावत बहुत प्रचलित थी, स्पेयर द रॉड एंड स्पॉयल द चाइल्ड । यानी बच्चे को बर्बाद करना हो तो छड़ी का सहारा छोड़ दो। पश्चिम के अधिसंख्य देशों ने बहुत पहले इस फार्मूले पर अमल बंद कर दिया है और स्कूलों में बच्चों को शारीरिक दंड और मानसिक यातना दिए जाने के खिलाफ कड़े कानून बना दिए हैं। सुधार और अनुशासन के नाम पर बच्चों को दिए जाने वाले दंड को अंग्रेजी में कारपोरल पनिशमेंट कहा जाता है। बदकिस्मती से हमारे देश में बच्चों को कारपोरल पनिशमेंट से बचाने के लिए कानून तो बन गया है, लेकिन दंड देने की प्रथा अब भी कायम है। अनुशासन के नाम पर कभी—कभी सजा की तमाम हदें और मर्यादाएं तोड़ डाली जाती हैं। बच्चों को एक-दूसरों से पिटवाना, उन्हें स्वमूत्रपान के लिए मजबूर करना, अंधेरे कमरे में बंद कर देना, इतना पीटना कि उसके कान का पर्दा फट जाए, जैसी सजाएं आये—दिन सुर्खियां बनती हैं। कुछ दिन पूर्व राजस्थान के भीलवाड़ा के एक ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी स्कूल में 38 बच्चियों के बाल काटे जाने की घटना ने एक बार फिर हमारे शिक्षा प्रणाली के आगे सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं। जिले के सुवाणा ब्लॉक में बोरड़ा गांव के बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय की इन मासूमों का कुसूर सिर्फ इतना था कि दो चोटी कर आने के लिए प्रिंसिपल के फरमान की उन्होंने अनदेखी की थी। प्रिंसिपल और तीन टीचरों ने मिलकर रोती—बिलखती 35 लड़कियों के बालों पर कैंची चला दी। बाद में जब अभिभावकों ने विरोध किया तो प्रिंसिपल को सस्पेंड और तीनों टीचरों को एपीओ कर दिया गया, लेकिन जिन बच्चियों के साथ यह अमानवीय व्यवहार किया गया है, वे ताउम्र इस कसैली यादों के साथ जिएंगी।