Published 12 March 2014 in Hari Bhoomi |
सत्यजीत चौधरी
बात एक अटपटे प्रसंग से शुरू कर रहा हूं। तीन मार्च को केंद्रीय कैबिनेट की बैठक थी। माना जा रहा था कि मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में चल रही बैठक में भ्रष्टाचार निरोधी ऑर्डिनेंस पर कोई फैसला आ सकता है, लेकिन कैबिनेट ने जाट बिरादरी को पिछड़ी जातियों की केंद्रीय सूची में शामिल करने का एेलान कर दिया। इसमें नया कुछ नहीं था। माना जा रहा था कि मनमोहन सिंह चुनाव से पहले इसका ऐलान कर सकते हैं। हैरत की बात यह है कि कैबिनेट द्वारा जाटों को लेकर ऐलान से काफी पहले शाम को पश्चिमी यूपी आेैर दिल्ली के कुछ समाचारपत्रों में रालोद नेता और केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह का आभार वाला एक पेज का विज्ञापन पहले पहुंच गया। इस दो बातें साबित हुईं, पहली यह कि इस फैसले को एेन चुनाव से पहले अमली जामा पहनाने में अजित सिंह की बड़ी भूमिका थी और दूसरा यह कि केंद्रीय सेवाओ और शिक्षण संस्थानों में ओबीसी कोटे के तहत जाटों को आरक्षण देकर कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि पश्चिमी यूपी में वह चुनाव अजित सिंह के नेतृत्व में लड़ेगी।
केंद्र सरकार के इस फैसले ने रालोद में जोश का बारूद भर दिया है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद छोटे चौधरी की चुप्पी ने रालोद के सामाजिक समीकरण पर असर पड़ा था। यहां तक कि कहा जाने लगा कि बागपत समेत कई अन्य जिलों में अजित सिंह के प्रति जाट समुदाय की प्रतिबद्धता डगमगाने की बात होने लगी थी। अजित और जयंत के सामने जाटलैंड में अपनी विरासत को सहेजने की चुनौती थी। इसके लिए रालोद ने पदयात्रा से लेकर तमाम तीर तरकश से छोड़े। आखिर में चौ. अजित सिंह ने केंद्र सरकार से साफ-साफ कह दिया कि अगर पश्चिमी यूपी में भाजपा को रोकना है तो जाट आरक्षण का ब्रह्मा चलना ही पड़ेगा। दरअसल यूपीए—2 सरकार जाटों को आरक्षण देने से हिचक रही थी। कई कारण थे। मुजफ्फरनगर दंगों की पृष्ठभूमि में पैदा हालात में पश्चिमी यूपी में कांग्रेस को लेकर मुसलमान और बिदकने का खतरा है। दूसरी जातियां भी आरक्षण का मुद्दा उठा सकती थीं।
छोटे चौधरी ने सोनिया को समझाया
बहरहाल कांग्रेस को लगा कि दंगों के बाद एकतरफा भाजपा के साथ जा खड़े जाटों को कैसे मनाया जाए तो उसने अजित सिंह की बात मान ली। कैबिनेट में भी जाटों को लेकर कुछ विरोधी सुर थे और यही वजह है कि इस मुद्दे पर अंतिम अहम राजनीतिक फैसला इतना आसान नहीं था। कैबिनेट की जिस बैठक में इसे मंजूरी दी गई, वहां सदस्य बैठ कर प्रधानमंत्री का इंतजार करते रहे। यहां तक कि मंत्रियों को जाट आरक्षण का कैबिनेट नोट भी नहीं मिला। लेकिन यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के वीटो की वजह से आखिरकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कैबिनेट को इसे पास करना पड़ा। दरअसल चौधरी अजित सिंह ने सोनिया गांधी से मुलाकात कर जाट आरक्षण के नफे-नुकसान और जाट लैंड में समुदाय के वोट समीकरण पर बात की थी। इसके बाद सोनिया ने आरक्षण के तकनीकी पहलुआें पर चिदंबरम, कपिल सिब्बल को अलग—अलग बुलाकर बात की। पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री को इसके लिए कहा।
अब इस फैसले के बाद केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्ग के तहत जाटों को आरक्षण मिलने का रास्ता साफ हो गया है। इसका सीधा फायदा नौ उत्तर भारतीय राज्यों (उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली, बिहार, उत्तराखंड और राजस्थान) के जाटों को मिलेगा। इन राज्यों में करीब नौ करोड़ जाट रहते हैं। देश में जाटों की गिनती आम तौर पर बड़ी या मध्यम जोत वाले संपन्न किसानों के रूप में होती है। दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान के भरतपुर—धौलपुर जिलों समेत कई इलाकों में अपनी मेहनत के बलबूते पर इस बिरादरी ने समाज में अपनी बेहतर जगह बनाई है। कई क्षेत्रों में जाट पहले से कही अधिक जागरूक, आर्थिक और सामाजिक रूप से ताकतवर हुए हैं। पंजाब और हरियाणा और पश्चिमी यूपी में समुदाय के कई लोगों ने पत्रकारिता में ऊंचा मुकाम हासिल किया है। साहित्य लेखन में कई जाट लेखक अपना लोहा मनवा चुके हैं, लेकिन आला दर्जे की सरकारी नौकरियों में उनका उतना प्रतिनिधित्व नहीं है, जितनी उनकी हैसियत वाले समुदाय का होना चाहिए था। उच्च शिक्षा के मामले में भी जाट बिरादरी की हालत पिछड़े या अति पिछड़े वर्ग जैसी ही है। यही वजह है कि राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट लंबे समय से सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिए जाने की मांग के साथ आंदोलन कर रहे थे। कई बार उनका आंदोलन उग्र हुआ। दिल्ली का पानी रोका गया। जाट आंदोलन में फूट भी पड़ी और पश्चिमी यूपी और हरियाणा में कई-कई जाट संगठन अपने बैनर बनाकर आरक्षण की लड़ाई लडऩे लगे। जाट आरक्षण की मांग को लेकर सरकार पर जब ज्यादा दवाब बढ़ा, तो उसने इस मांग पर विचार करने के लिए वित्त मंत्री पी$ चिदंबरम की अध्यक्षता गृह मंत्री, सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री और कार्मिक , प्रशिक्षण व पीएमओ में राज्यमंत्री को शामिल कर मंत्रियों का एक समूह (जीओएम) गठित किया, जिसने पिछले दिनों अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। रिपोर्ट में जाटों से जुड़े मसलों पर सरकार को दो विकल्प सुझाए गए थे। इन्हीं विकल्पों को ध्यान में रखकर सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय ने जाट आरक्षण का रोडमैप केंद्रीय कैबिनेट के पास भेजा, जिस पर कैबिनेट ने जाट कोटे के प्रस्ताव अपनी मंजूरी दे दी। कैबिनेट के इस फैसले के बाद जाट समुदाय को केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सूची में शामिल कर लिया जाएगा और उन्हें भी वे फायदे मिलने लगेंगे, जो देश में पिछड़े वर्ग को मिलते हैं।
एनसीबीसी ने किया था विरोध
जाट आरक्षण को लेकर सियासत भी शुरू हो गई है। कहा जा रहा है कि कैबिनेट ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) की सिफारिशों को दरकिनार कर जाटों को आरक्षण देने का फैसला किया है। पिछले साल दिसम्बर में कैबिनेट के फैसले के बाद, इस मामले को राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पास जांच और उसके सुझाव के लिए भेज दिया गया था। इस फैसले से कुछ दिन पूर्व ही केंद्र सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में आयोग ने जाट आरक्षण के प्रस्ताव को पूरी तरह खारिज कर दिया था। एनसीबीसी का मानना था कि जाट आेबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल होने की पात्रता और मापदंडों पर खरे नहीं उतरते। दरअसल एनसीबीसी ने जाट बिरादरी को सामाजिक और आॢथक रूप से पिछड़ा माना ही नहीं था।
कांग्रेस के भीतर से विरोध
चुनाव से ठीक पहले लिए गया यूपीए सरकार का यह फैसला, सोलहवीं लोकसभा में कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों को कितना फायदा पहुंचाएगा, यह तो वाला वक्त बताएगा लेकिन फिलहाल सरकार पर आरोप लगने लगे हैं। खुद कांग्रेस के भीतर से जाट आरक्षण के खिलाफ आवाज उठने लगी है। हाल में कांग्रेसी नेता राशिद अल्वी ने मुजफ्फरनगर दंगों के मद्देनजर कहा है कि इस फैसले से मुस्लिम तबके में गलत संकेत गया है। इतना ही नहीं, अल्वी ने इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र भी लिखा है। अल्वी ने लिखा कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद एक समुदाय विशेष को आरक्षण देने से न सिर्फ मुस्लिम तबके में आमतौर पर गलत संकेत गया, बल्कि अन्य पिछड़े वर्ग पर इसका गलत असर पड़ा है।
पंजाब में जाट राजनीति
लंबे समय जाटों को लेकर एक तरह की विभ्रम की स्थिति से उबरते हुए चार मार्च, 2014 को पंजाब में अकाली सरकार ने जाति आधारित राजनीति के आगे समर्पण किया और जाटों को पिछड़ी जाति घोषित कर दिया। जाति आधारित राजनीति इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि वर्ष 1898 में कान सिंह नाभा ने अपने मशहूर पैम्फलेट—हम हिंदू नहीं में दावा किया था कि सिखों में जाति प्रथा नहीं है। अकाली नेतृत्व भी हमेशा से कहता रहा है कि सिखों में जाति प्रथा नहीं है हालांकि समाजशा ियों ने अपने विभिन्न अध्ययनों में यह साबित किया है कि सिखों में जाति प्रथा एक वास्तविकता है।
लेकिन सिखों में जाति आधारित वर्गीकरण सैद्घांतिक रूप से हिंदुआें से अलग है। सिखों में ब्राह्मण जाति नहीं है। साल 19३1 की जनगणना के अनुसार जाति आधारित समुदायों की मौजूदगी एक महत्वपूर्ण सामाजिक वास्तविकता थी। सिखों की कुल आबादी में से दो—तिहाई हिस्सा जाटों का है, जो मूल रूप से किसान हैं। पंजाब के ज़्यादातर जाट सिख हैं लेकिन जाटों का संबंध दूसरे धर्मों जैसे हिन्दू और मुसलमानों से भी हैं। अधिसंख्य मुस्लिम जाट पाकिस्तानी पंजाब में रहते हैं, लेकिन कुछ भारत के हरियाणा और दूसरे राज्यों में भी रहते हैं। उसी तरह पंजाब के सारे जाट सिख नहीं हैं। फिरोज़पुर और होशियारपुर जिलों के कुछ हिस्सों में हिंदू जाट भी हैं। वर्तमान समय में पंजाब की कुल आबादी में जाट 35 से 4 फीसद हैं और वे सबसे बड़े जाति आधारित समूह हैं। इसके बाद मजहबी, बाल्मीकि, मसीह और चमार जातियां आती हैं। जाहिर है बादल सरकार का जाटों को पिछड़ों की श्रेणी में लाने का फैसला इन्हीं चालीस फीसद वोट बैंक को लुभाने के लिए हो। इसकी एक वजह और भी है। भाजपा और बसपा को छोडक़र शेष सभी राजनीतिक दलों में जाटों का दबदबा है। पंजाब के अधिसंख्य मुख्यमंत्री जाट जाति से रहे हैं। साल 19६6 के बाद से कुछ अपवाद भी रहे,जैसे राम किशन, ज्ञानी जैल सिंह (और शायद गुरमुख सिंह मुसाफिर)।
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