गुरुवार, 17 मार्च 2011

आइये चलते हैं छुक-छुक की दुनिया में !


सत्यजीत चौधरी
 इस खबर को पढ़ने वाले बहुत-से लोगों ने भाप  का इंजन नहीं देखा होगा। नई जेनरेशन को दिखाया जाए तो कहेगी, ‘काला-कलूटा दैत्य’। ठीक भी  है, अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत में जब यूरोप में शुरुआती रेल इंजन ट्रैक पर दौड़े थे तो लोगों की यही प्रतिक्रिया थी। आज ये अतीत की बात हैं, लेकिन इन्हीं ‘काले-कलूटे दैत्य’ की उंगली पकड़कर हमने आर्थिक और सामाजिक विकास का लंबा सफर तय किया है। 
    भारत  में डीजल और इलेक्ट्रिक इंजनों के आने के बाद भाप के  इंजनों से रेलवे ने पिंड छुड़ाना शुरू कर दिया। देशभर में दर्जनों लोको शेड्स इन इंजनों की कब्रगाह बन गए। भाप  के इंजन के इन्हीं कब्रिस्तानों में से एक था रेवाड़ी स्टीम लोको शेड। कहते हैं बेचैन आत्माएं हर जगह बसती हैं। दिल्ली डिवीजन के सीनियर डिवीजनल मैकेनिकल इंजीनियर विकास आर्य ने शेड में बेजान खड़े खंखाड़ इंजनों में जान फूंकने की ठान ली।
     शनिवार को विकास दिल्ली के पत्रकारों की टीम को रेवाड़ी लेकर गए। रास्ते में उनसे कई शेड को लेकर कई पहलुओं पर बातचीत होती रही। 
     विकास ने बताया कि जहां चाह होती है, वहां राह भी  होती है। उन्होंने कुछ ऐसे लोग खोज निकाले जो उनकी मुहिम के मर्म को समझते थे। उनको निश्चित समय का टार्गेट दिया गया। लगभग असंभव  से इस काम को पूरा करने के लिए समय काफी कम था। काम शुरू होते ही कई तरह की परेशानियां खड़ी हो गर्इं।
Mr. Lohani 
      पुराने इंजनों के पुनर्जन्म के बारे में विकास आर्य से लंबी बातचीत हुई। विकास बताते हैं, ‘फरवरी, २१ में रेवाड़ी शेड में जाकर मुझे पता चला कि यहां खड़े जंग खा रहे नौ स्टीम इंजनों में से दो ही में थोड़ी बहुत ‘सांस’ बाकी है। ये दोनों थे बीजीएडब्लूई-२२९७ और एमजीवाईपी-३४१५। इस शेड के दो अन्य स्टीम इंजन डब्लूपी-७२ और डब्लूपी-७१६१ कोलकाता और सिलीगुड़ी में प्रकृति के रहम-ओ-करम पर खड़े थे। दोनों इंजन रेवाड़ी मंगाए गए। रेवाड़ी स्टीम इंजन शेड खुद बदहाली की कहानी बयान कर रहा था। खस्ताहाल दीवारे, चूती छतें और शेड पर उग आई जंगली लतर और बेलें। ११७ साल पुराने इस लोको शेड में खड़े बेजान स्टीम इंजनों में जान फूंकने के हौसले से खड़े २५ लोगों को नहीं मालूम था  कि वह भारतीय  रेलवे की विरासत की आधारशिला रखने जा रहे हैं।
      विकास के मुताबिक यह एक असाध्य सा काम था। जो लोग इस मुश्किल अभियान  में जुटे थे, उनमें मुहिम की उपादेयता का संचार करना था। इस बीच दिल्ली से डीआरएम अश्विनी लोहानी रेवाड़ी आए। शेड की टीम ने उन्हें चाय पेश की तो उनका जवाब था-‘इस ग्रेवयार्ड यानी कब्रगाह में चाय नहीं पियूंगा। इन इंजनों को चलाकर दिखाओ, फिर हम यहां दावत उड़ाएंगे।’
    लोहानी के इस वाक्य ने सभी  में जैसे काम का बारूद भर दिया।  स्टीम इंजन के पुराने जानकार जुटाए गए। उन कागज-पत्तरों को पलटा गया, जिनमें रिपेयरिंग की विधियां दर्ज थीं। एक मुश्किल हल की जाती तो दूसरी खड़ी हो जाती। स्टीम इंजनों से लोहा ले  सकने लायक औजार नहीं थे। चीजों को आकार देने के लिए भट्ठी नहीं थी। था तो बस हौसला और कर गुजरने का दम।
     विकास आर्य ने बताया कि टीम ने फरवरी में काम शुरू किया था और २५ अगस्त को हम डब्लूपी-७२ में फिर से जान फूंकने में कामयाब हो गए। इसके बाद ३१ अगस्त को विशाल डब्लूपी-७१६१ ने •ाी आग खाई ्रऔर भाप उगली। 
विकास बताते हैं कि अभी  काम खत्म नहीं  हुआ था। इंजनों के मेकओवर यानी सजाने और रंग-रोगन का काम बाकी था। रेवाड़ी स्टीम इंजन लोको शेड को हेरीटेज सेंटर में बदलने के लिए विकास ने एंटीक फर्नीचर, पुरानी क्राकरी, बेंचें, टाइप राइटर, पुरानी दीवार घड़ियां टाइप राइटर, ग्रामोफोन, किताबें जमा करनी शुरू कीं। इसके बाद शेड के लिए एक नया लोगो डिजाइन कराया गया। १ इंजनों वाले इस शेड में जमा चीजों से संग्रहालय बनाया गया है। इसके अलावा एक कैफेटेरिया •ाी है।
    विकास ने बताया कि अब रेलवे रेवाड़ी स्टीम लोको शेड को पूरी तरह से टूरिस्ट स्पॉट बनाने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए एक कार्यक्रम चाकआउट किया जा रहा है।
   बहरहाल, रेवाड़ी के इंजन म्यूजियम को देखना अपने तरह का थ्रिल है। हर रविवार को इंजनों को स्टार्ट कर चलाया जाता है। दूर-दूर से लोग इन्हें देखने और समझने के लिए आते है। तो आप कब कटा रहे हैं रेवाड़ी का टिकट। 


     ब्रिटेन में रेल हेरीटेज का चलन काफी पुराना है। विदेशी सैलानियों को आकर्षित करने के लिए वहां स्टीम लोको टूरिज्म को सरकार लोकप्रिय बना रही है। इससे अच्छी आय •ाी हो रही है। देशभर  के विभिन्न को शेड्स में इस समय पचास हजार से •ाी ज्यादा स्टीम लोको इंजन खड़े हैं। बस उन्हें इंतजार है विकास आर्य जैसे किसी शख्स का। 

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