सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

सबसे बड़े प्रदेश की तकलीफ

सत्यजीत चौधरी 
     उत्तर प्रदेश की चुनावी रणभेरी के बारे में एक कहावत चरितार्थ है कि यहां सुबह का सूरज नई उम्मीद लेकर आता जरूर है, लेकिन रात के अंधेरे में जो बदलाव होते हैं, वह पलभर में पूरी सत्ता और राजनीतिक पार्टियों पर भारी साबित होते हैं। सबसे पहले इसे दुनिया के नजरिए से देखते हैं। अगर उत्तर प्रदेश को देश मान लिया जाए, तो लोकतंत्र के लिहाज से यह दुनिया के 172 देशों में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक चुनाव है। उत्तर प्रदेश में 41 मुख्यमंत्री बदल चुके हैं।
इनमें से केवल गोविंद बल्लभ पंत, संपूर्णानंद और मायावती ने ही सत्ता के पांच साल पूरे किए हैं। 33वां चुनाव देख रही यूपी की जनता ने 16 विधानसभा और 17 लोकसभा के चुनाव में हिस्सेदारी की है। यह संख्या पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे पुराने राज्यों से भी ऊपर है। इतना बड़ा राज्य, इतने मतदाता और इतनी बड़ी संख्या में नेता हों, तो भला राजनीति चरम पर होगी ही। इस बार भी राजनीतिक उठापटक तेज है। जाति, धर्म व समुदाय के वोट पर कब्जे की कवायद है, तो नए फंडे भी हैं, जिनमें राजनीतिक लोग कामयाबी की किरण देख रहे हैं।
बहुजन समाज पार्टी सर्वजन फामरूले के आधार पर दलित, ब्राह्मण, मुसलिम और दूसरे पिछड़े वर्ग रिझने में लगी है, तो कांग्रेस राहुल गांधी के दम पर द्वंद्व में उलङो मुसलिमों और दलितों को अपने कब्जे में करना चाह रही है। समाजवादी पार्टी भी फिर मुसलिम-यादव फामरूले पर अमल कर रही है, तो भारतीय जनता पार्टी अल्पसंख्यक आरक्षण के खिलाफ बोलकर अपना वोट बैंक पक्का करना चाहती है। यह पहला ऐसा चुनाव है, जिसमें मायावती अपने किए कराए के आधार पर चुनाव मैदान में हैं। पहले भाजपा के साथ सरकार बनाने पर भी मायावती के पास शोषण का मुद्दा होता था, लेकिन इस बार यह अस्तित्व में नहीं है। वह भ्रष्टाचार जैसे मामलों का सामना कर रही हैं। मुसलिम आरक्षण और उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े करने को लेकर मायावती पहले ही फेल साबित हो चुकी हैं।
403 विधानसभा सीट में से मायावती ने 85 मुसलिम, 74 ब्राहम्ण, 88 दलित और 113 दूसरी पिछड़ी जातियों को टिकट देकर यह दिखाने का प्रयास किया है कि वह किसी भी रिजर्वेशन के बिना विकास और पिछड़ेपन को दूर कर सकती हैं। इस बार मायावती ने केवल 43 ही दूसरी जातियों या समुदायों को पार्टी का टिकट दिया है। मायावती ने चुनाव आयोग के हाथी ढंकने के फरमान को भी चुनावी मुद्दा बनाने का प्रयास किया है।
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, बेटे अखिलेश यादव को साथ लेकर 1989 के फंडे पर अमल करने जा रहे हैं। मुसलिम-यादव वोट बैंक को टारगेट बनाकर मुलायम और अखिलेश को कुछ नई सीटें मिलने की उम्मीद जगी है। इसी फामरूले पर उन्होंने तकरीबन 50 प्रतिशत मुसलिम और यादवों को टिकट दिए हैं। अखिलेश खुद को तकनीक से लैस आधुनिक युवा के तौर पर पेश कर रहे हैं। इसीलिए उन्होंने युवाओं को रिझने के लिए युवाओं को फ्री लैपटॉप और टेबलेट कंप्यूटर देने की चुनावी घोषणा की है। साथ ही नीतीश कटारा और जेसिका मर्डर केस के आरोपियों या उनसे जुड़े लोगोंे को टिकट देने से इंकार कर यह दिखाने का प्रयास किया है कि सपा अपराध से इतर केवल विकास की राजनीति करने जा रही है। पार्टी ने इस बार शिक्षित लोगों को टिकट दिया है, जिसमें एक आईआईएम के प्रोफेसर अभिषेक मिश्रा का भी नाम शामिल है।
पोल के नतीजे राहुल गांधी के लिए सुकूनदेह साबित हो सकते हैं। वे यूपी की सियासत से दिल्ली का राज बनाए रखना चाहते हैं, तो दूसरी ओर जनता से सिर्फ एक मौका मांग रहे हैं। पार्टी ने चुनाव से ऐन पहले मुसलिम आरक्षण की घोषणा और दलित उत्थान के बड़े दावे कर वोट बैंक पर कब्जे का प्रयास किया है। इस बार कांग्रेस ने केवल 25 प्रतिशत ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिया है, जो करिश्मा दिखाकर जीत दर्ज कर सकते हैं। केंद्रीय मंत्रियों बेनी प्रसाद वर्मा और सलमान खुर्शीद के साथ एससी एसटी आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया के प्रचार से उम्मीद कर रही है कि इस बार आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ होगा।
भाजपा फिर मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती के साथ नई उमंग महसूस कर रही है। उमा के सहारे हिंदुत्व को बढ़ावा देने के प्रयास से भाजपा अपने वोट बैंक की वापसी की उम्मीद पाल रही है। हालांकि बाबूसिंह कुशवाहा की वजह से किरकिरी के बाद भाजपा जीत का रास्ता तय करने में जुटी है।
भाजपा हो या कांग्रेस या पीस पार्टी, इस बार मुद्दों के नजरिए से हर पार्टी केवल घोषणाओं पर अमल कर रही है। बसपा भी इस बार मुद्दों का भटकाव ङोल रही है, तो रालोद के गन्ना समर्थन मूल्य और हरित प्रदेश के मुद्दे को वह पहले ही कैश करने का प्रयास कर चुकी है। कांग्रेस केवल एक मौके के दम पर वोट मांग रही है, तो भाजपा पुराने हिंदुत्व को फिर जगाना चाहती है। दूसरी छोटी पार्टियां भी राजनीति या धार्मिक आधार पर अपने हिस्से में कुछ वोट बैंक डाल लेना चाहती हैं।
2007 में बसपा ने सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़कर 206 में जीत दर्ज की थी, जबकि इससे पहले उसके पास कुल 67 सीटें थी। समाजवादी पार्टी ने गत चुनाव में कुल 393 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे और इनमें से केवल 97 पर जीत मिली थी, जबकि उससे पहले सपा के पास 152 सीटें थी। भाजपा ने 350 सीटों पर वर्ष 2007 के चुनाव में प्रत्याशी उतारे थे, और 51 सीटों पर जीत हासिल की थी।
इससे पहले भाजपा के पास 83 सीटें थी। इसी प्रकार कांग्रेस ने सपा के बराबर 393 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और महज 22 सीटों पर जीत मिली, जबकि इससे पहले उसके पास 25 विधानसभा सीटें थी। राष्ट्रीय लोकदल ने 2007 में 254 सीटों पर प्रत्याशी उतारकर दस सीटें अपने खाते में की थीं, इससे पहले रालोद के पास 15 विधानसभा सीट थीं। राष्ट्रीय परिवर्तन दल ने 14 सीटों पर लड़कर दो पर जीत दर्ज की थी, जबकि पहले उसके पास एक सीट थी। 2007 में प्रदेश में कुल 2581 निर्दलीयों में से केवल नौ ही जीत पाए थे। इस बार यह सभी आंकड़े बदलने की कवायद जोरों पर है। मायावती की सोशल इंजीनियरिंग और ब्राह्मण-दलित फामरूला दूसरी राजनीतिक पार्टियों के भी निशाने पर है। मायावती के पांच साल के कार्यकाल के बाद दूसरी पार्टियां भी जनता का मूड समझकर आगे का निर्णय ले रही हैं। इस मूड की वजह से ही चुनावी घोषणापत्रों में आधुनिक वादे किए जा रहे हैं।

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