सत्यजीत चौधरी
देश के मुसलमानों को कई बार अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। अन्ना आंदोलन को लेकर एक बार फिर उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की राष्ट्र-व्यापी मुहिम को लेकर मुसलमानों पर निशाने साधे जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस तबके ने खुद को इस अभियान से अलग रखा हुआ है। दरअसल, इस देश के मुसलमानों के बारे में कुछ ऐसे मिथक गढ़ दिए गए हैं, जिन पर कुछ लोग आंख मूंदकर यकीन कर लेते हैं। समस्या यह कि इस देश में मुसलमान उन्हें माना जाता है, जो दाढ़ी रखते हैं। जिनके सिर पर टोपी होती और जो ऊंचा पाजामा पहनते हैं।
देश के मुसलमानों को कई बार अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। अन्ना आंदोलन को लेकर एक बार फिर उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की राष्ट्र-व्यापी मुहिम को लेकर मुसलमानों पर निशाने साधे जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस तबके ने खुद को इस अभियान से अलग रखा हुआ है। दरअसल, इस देश के मुसलमानों के बारे में कुछ ऐसे मिथक गढ़ दिए गए हैं, जिन पर कुछ लोग आंख मूंदकर यकीन कर लेते हैं। समस्या यह कि इस देश में मुसलमान उन्हें माना जाता है, जो दाढ़ी रखते हैं। जिनके सिर पर टोपी होती और जो ऊंचा पाजामा पहनते हैं।
हमारे न्यूज चैनलों को भी जब किसी मसले पर मुसलमानों से बाइट की दरकार होती है, तो वे दिल्ली के जामा मसजिद या तुर्कमान गेट का रुख करते हैं। इनकी नजर में हमेशा नमाज की टोपी धारण करने और दाढ़ी रखने वाले ही मुसलमान हैं। इन्हीं खबरिया चैनलों में से कुछ को पिछले दिनों बोध हुआ कि अन्ना के आंदोलन में गांधी टोपी तो बहुतायत में है, गोल टोपी नदारद है। फिर क्या था, इस एंगल पर काम शुरू हुआ तो नागपुर और दिल्ली में बैठे प्रवक्ता भी सक्रिय हो गए। भ्रष्टाचार को लेकर मुसलमानों के सरोकारों को खंगाला जाने लगा। इस आंदोलन की रिपोर्टिग के दौरान मुङो रामलीला मैदान में दो-चार नहीं, सैकड़ों ऐसे पढ़े-लिखे और ऊंचे पदों पर काम करने वाले मुसलमान मिले, जिनके दाढ़ी नहीं थी। वे सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे या कॉरपोरेट कंपनियों में बड़े ओहदों पर थे। मैंने देखा कि वे रामलीला मैदान में लोगों को पानी पिला रहे थे और और सफाई तक कर रहे थे दुखद पहलू यह है कि मुसलमानों के तथाकथित रहनुमा ही मुसलमानों की छवि को बिगाड़ने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। ताजा उदाहरण जामा मसजिद के शाही इमाम जनाब अहमद बुखारी का है। उन्होंने अन्ना हजारे के आंदोलन को ही गैरइस लामी बताते हुए मुसलमानों को इससे दूर रहने की सलाह दे डाली। समझ नहीं आया कि अन्ना का आंदोलन गैर इसलामी कैसे है? यदि वे आंदोलन के दौरान लगने वाले वंदेमातरम और भारत माता की जय जैसे नारों को सुनकर इसे गैरइसलामी ठहरा रहे हैं तो माना जाना चाहिए कि जंग-ए-आजादी के दौरान लगने वाले इस तरह के नारे भी गैरइसलामी थे और जिन लोगों ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया, वे भी गैरइसलामी काम रहे थे।
किरण बेदी जब बुखारी से मिलीं और उनके सामने अपना पक्ष रखा और अपील पर पुनर्विचार करने की बात की तो उनके रुख में नरमी आई, लेकिन उनके बयान से जो नुकसान होना था, वह तो हो ही गया। अब बुखारी को वंदेमातरम् पर तो आपत्ति नहीं, लेकिन वह कह रहे हैं कि अन्ना सांप्रदायिकता को भी अपने एजेंडे में शामिल करें, तो मुसलमान उनसे जुड़ जाएंगे। बुखारी साहब यह क्यों नहीं सोच रहे कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है, न कि सांप्रदायिकता के। अस्सी और नब्बे के दशक में जब सांप्रदायिकता मुद्दा थी, तो अन्ना हजारे जैसे लोग ही सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ रहे थे और मुसलिम नेता राज्यसभा में जाने की जुगत भिड़ा रहे थे।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि अहमद बुखारी के बयान से सभी उलेमा या मुसलमान इत्तेफाक रखते हों। ऑल इंडिया उलेमा काउंसिल के मौलाना महमूद दरयाबादी ने बुखारी की अपील को उनकी निजी राय बताया। ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के महासचिव प्रोफेसर डॉ. अली जावेद ने अन्ना हजारे के मंच से कहा था कि जो लोग वंदे मातरम् या भारत माता की जय के नारे नहीं लगाना चाहते हैं, वे न लगाएं, लेकिन आंदोलन में सक्रिय रहें। उनकी देशभक्ति उन लोगों से किसी भी मायने में कम नहीं होगी जो ये नारे लगा रहे हैं। दारुल उलूम, देवबंद और ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड पहले ही आंदोलन को समर्थन दे चुके हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से इसलामी इदारे अन्ना के समर्थन में बयान जारी कर रहे हैं।
रामलीला मैदान में रोजा इफ्तार का आयोजन किया जा रहा है। नमाज अदा की जा रही है। खुद अन्ना ने मंच पर एक बच्ची को पानी पिलाकर उसका रोजा खुलवाया। रामलीला मैदान से लगा तुर्कमान गेट मुसलिम बाहुल्य है। मैंने खुद इसी मंगलवार वहां मुसलिम युवाओं को बारिश से हुए जलभराव को साफ करते देखा है। आंदोलन के दौरान जितने भी मुसलिम मुङो मिले, सबने यही कहा कि अन्ना बड़े मकसद के लिए आंदोलन कर रहे हैं, इसलिए इसमें भागीदारी करना हमारा फर्ज बनता है। कुछ मुसलिमों का यह भी मानना था कि रमजान के दिनों की वजह से मुसलिमों की भागीदारी उतनी नहीं है, जितनी होनी चाहिए थी।
यह इतिहास है कि आजादी के आंदोलन से लेकर अन्ना के आंदोलन तक मुसलमानों की बराबर की भागीदारी रही है, तब भी जब जेपी आंदोलन का आरएसएस भी समर्थन कर रहा था। और वीपी सिंह के साथ तब भी था, जब जनमोर्चा और भाजपा का चुनावी तालमेल था।
-मुसलमानों के बारे में मिथक गढ़ दिए गए हैं।
इस देश में मुसलमान उन्हें माना जाता है, जिनके दाढ़ी होती है और सिर पर टोपी। जो ऊंचा पाजामा पहनते हैं।
किरण बेदी जब बुखारी से मिलीं और उनके सामने अपना पक्ष रखा और अपील पर पुनर्विचार करने की बात की तो उनके रुख में नरमी आई, लेकिन उनके बयान से जो नुकसान होना था, वह तो हो ही गया। अब बुखारी को वंदेमातरम् पर तो आपत्ति नहीं, लेकिन वह कह रहे हैं कि अन्ना सांप्रदायिकता को भी अपने एजेंडे में शामिल करें, तो मुसलमान उनसे जुड़ जाएंगे। बुखारी साहब यह क्यों नहीं सोच रहे कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है, न कि सांप्रदायिकता के। अस्सी और नब्बे के दशक में जब सांप्रदायिकता मुद्दा थी, तो अन्ना हजारे जैसे लोग ही सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ रहे थे और मुसलिम नेता राज्यसभा में जाने की जुगत भिड़ा रहे थे।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि अहमद बुखारी के बयान से सभी उलेमा या मुसलमान इत्तेफाक रखते हों। ऑल इंडिया उलेमा काउंसिल के मौलाना महमूद दरयाबादी ने बुखारी की अपील को उनकी निजी राय बताया। ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के महासचिव प्रोफेसर डॉ. अली जावेद ने अन्ना हजारे के मंच से कहा था कि जो लोग वंदे मातरम् या भारत माता की जय के नारे नहीं लगाना चाहते हैं, वे न लगाएं, लेकिन आंदोलन में सक्रिय रहें। उनकी देशभक्ति उन लोगों से किसी भी मायने में कम नहीं होगी जो ये नारे लगा रहे हैं। दारुल उलूम, देवबंद और ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड पहले ही आंदोलन को समर्थन दे चुके हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से इसलामी इदारे अन्ना के समर्थन में बयान जारी कर रहे हैं।
रामलीला मैदान में रोजा इफ्तार का आयोजन किया जा रहा है। नमाज अदा की जा रही है। खुद अन्ना ने मंच पर एक बच्ची को पानी पिलाकर उसका रोजा खुलवाया। रामलीला मैदान से लगा तुर्कमान गेट मुसलिम बाहुल्य है। मैंने खुद इसी मंगलवार वहां मुसलिम युवाओं को बारिश से हुए जलभराव को साफ करते देखा है। आंदोलन के दौरान जितने भी मुसलिम मुङो मिले, सबने यही कहा कि अन्ना बड़े मकसद के लिए आंदोलन कर रहे हैं, इसलिए इसमें भागीदारी करना हमारा फर्ज बनता है। कुछ मुसलिमों का यह भी मानना था कि रमजान के दिनों की वजह से मुसलिमों की भागीदारी उतनी नहीं है, जितनी होनी चाहिए थी।
यह इतिहास है कि आजादी के आंदोलन से लेकर अन्ना के आंदोलन तक मुसलमानों की बराबर की भागीदारी रही है, तब भी जब जेपी आंदोलन का आरएसएस भी समर्थन कर रहा था। और वीपी सिंह के साथ तब भी था, जब जनमोर्चा और भाजपा का चुनावी तालमेल था।
-मुसलमानों के बारे में मिथक गढ़ दिए गए हैं।
इस देश में मुसलमान उन्हें माना जाता है, जिनके दाढ़ी होती है और सिर पर टोपी। जो ऊंचा पाजामा पहनते हैं।
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