शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

डांवाडोल रुपये पर सवार बाजार

सत्यजीत चौधरी 
"भारत की अर्थव्यवस्था में यह मंदी का दौर है। इसका कोई आसान समाधान नहीं है। असर बढ़ सकता है। विदेश में जो हो रहा है, उसके मद्देनजर सरकार बेहतर काम नहीं कर पा रही है। किसी तरह के बड़े प्रयास करके सरकार घाटा बढ़ाना नहीं चाहती। योजना आयोग के उपाध्यक्ष का साफ संकेत है कि वित्तीय घाटा अभी और बढ़ सकता है।"
   एक बार फिर शेयर बाजार, बेजारी के आलम में है। रात को खरीदे जाने वाले शेयर सुबह होते ही कितने का चूना लगा दें, अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो गया है। सुपर पॉवर अमेरिका का शेयर बाजार हो या चीन का, हर जगह मंदी ने निवेशकों को गम देना शुरू कर दिया है। इस बीच भारत में रुपये की घटती वैल्यू ने निवेशकों से लेकर आम जनता तक के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अमेरिका का डॉलर तेजी से मजबूत हो रहा है, जिससे रुपया कमजोर हो रहा है। ‘यूरो’ भी रुपये की माफिक तेजी से कमजोर पड़ रहा है। यूरोप की आर्थिक स्थिति के दीवालिया होने से लगातार अमेरिका को मजबूती मिल रही है। मतलब यह नहीं है कि अमेरिका की आर्थिक स्थिति ज्यादा मजबूत होने से डॉलर मजबूत हो रहा है। दरअसल, डॉलर और यूरो के बीच ऐसा तालमेल है, कि एक मजबूत तो दूसरा कमजोर होता है। पिछले दिनों अमेरिकी डॉलर की गिरती वैल्यू के लिए यूरो की मजबूती मुख्य वजह थी। डॉलर की मजबूती की एक और मुख्य वजह है कि दुनियाभर में जितना निवेश हो रहा है, वह डॉलर में ही किया जा रहा है। पूरा कारोबार अंत में डॉलर पर आकर टिक गया है। डॉलर की ताकत तभी बढ़ती है, जब उसके मुकाबले बाकी लगभग 192 देशों की मुद्राएं कमजोर होने लगती हैं।
पिछले एक साल में रुपया, डॉलर के मुकाबले तकरीबन 12 प्रतिशत नीचे आया है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत है कि यह मंदी के साये से भी दूर रहती है, लेकिन कहीं न कहीं यह भारतीय निवेशकों और आम जनता के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। देश की अर्थव्यवस्था इस वक्त भी रुपये की कमजोरी से दबाव में आ गई है। जब रुपये का मूल्य डॉलर के मुकाबले कम होता है, तो ही निर्यात लाभदायक होता है। हम जो निर्यात करते हैं, उसकी कीमत कम हो जाती है। जो देश के बाहर कपड़ा बेच रहे हैं, हस्तशिल्प बेच रहे है, सॉफ्टवेयर बेच रहे है, सबकुछ कम मूल्य में हो जाता है। रुपया कमजोर होने पर निर्यातकों को सस्ते में माल बेचना मजबूरी होती है, लेकिन जब वह विदेशों से कोई माल खरीदते हैं, तो वह महंगा पड़ता है। डॉलर मजबूत होने से आयात होने वाली हर वस्तु के दाम खुद ही बढ़ जाते हैं। तेल का दाम बढ़ जाता है। विदेशी बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ी नहीं, कम हुई है। लेकिन फायदा हमें नहीं मिला, क्योंकि रुपया कमजोर है।
रुपये का अवमूल्यन हो तो आयातित सामान महंगा होता है। निर्यात-आयात का असंतुलन बढ़ता है। अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। इससे महंगाई भी बढ़ेगी। जो तेल हम खाते हैं जैसे पामोलीन, उसे दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से आयात करते हैं, वह भी महंगा हो रहा है। भारत में खाने के जितने तेल का हम उपयोग करते हैं, उसका पचास प्रतिशत विदेश से आयात होता है। आयात महंगा होने से खा तेल भी महंगा होगा। यह भी महंगाई का एक कारण है।
डॉलर और रुपये के बीच की इसी उठापटक का शिकार होता है आम आदमी। कहने को तो इसका आरोप सरकार पर लगाया जाता है, लेकिन इसके लिए अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य को ज्यादा जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। केंद्र सरकार के पास पिछले दिनों प्रस्ताव आया था कि डॉलर को बेच दिया जाए।
भारतीय रिजर्व बैंक के पास जो विदेशी मुद्रा है, वह तकरीबन 270 अरब अमेरिकी डॉलर हैं। यानी अगर रिजर्व बैंक की ओर से डॉलर बेच दिया जाए, तो जाहिर तौर पर डॉलर की वैल्यू नीचे चली जाएगी। डॉलर की वैल्यू गिरने के साथ ही रुपया और दूसरे देशों की मुद्राओं में भी खुद ही उछाल आ जाएगा।
हालांकि केवल 270 अरब अमेरिकी डॉलर बाजार में आने से डॉलर पर बहुत ज्यादा असर नहीं होगा, लेकिन जितना होगा, उससे भारत में बढ़ रही महंगाई पर काबू पाने में आसानी होगी। इस प्रस्ताव पर रिजर्व बैंक भी बेहद साफ रुख रखता है। उसका तर्क है कि हमारे पास अब इतनी जमा पूंजी नहीं है कि हम अमेरिकी डॉलर बेच सकें। ऐसा करने पर देश की आर्थिक स्थिति तकरीबन 20 साल पहले जैसी हो सकती है। इस स्थिति से निपटने के लिए रुपये का अवमूल्यन किया गया था। खास बात यह है कि यह अवमूल्यन एक नहीं, बल्कि दो बार करना पड़ा। पिछले कुछ वर्षो में रिजर्व बैंक के पास डॉलर के रूप में जो पूंजी एकत्र हुई है, उसमें बड़ा हिस्सा विदेशी निवेश के जरिए आया हुआ है। शेयर बाजार में जो विदेशी निवेशक आते हैं, उनके निवेश से आने वाले पैसे को हॉट मनी कहा जाता है। खास बात यह है कि यह पैसा अस्थाई होता है, यानी कभी भी देश से वापस जा सकता है। अब रिजर्व बैंक के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अगर इस वक्त डॉलर बेच दिए गए, तो आने वाले महामंदी के दिनों में हालात और चौंकाने वाले हो जाएंगे। यानी तब रिजर्व बैंक के पास भी कोई रास्ता नहीं बचेगा। जिस प्रकार तेजी से आर्थिक मंदी पूरी दुनिया को दोबारा चपेट में ले रही है, उस स्थिति को देखते हुए रिजर्व बैंक का यह कदम स्वागत योगय भी कहा जा सकता है।
विदेशी बाजारों से प्रभावित होने वाला भारतीय शेयर बाजार एक बार फिर बुरे दौर में पहुंच रहा है। संवेदी सूचकांक तेजी से नीचे आ रहा है। हालांकि 2008 के बाद काफी दिनों तक शेयर बाजार का सुनहरा दौर चला था, जिसमें निवेशकों के खूब वारे-न्यारे भी हुए थे। उस वक्त भारतीय शेयर बाजार ने 21 हजार का आंकड़ा भी पार कर लिया था। एक बार फिर चिंता के इन हालात के बीच शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक 15 हजार तक आ पहुंचा है। शेयर बाजार से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि अभी गिरावट जारी रह सकती है।
यानी एक बार फिर बाजार बेजार हो सकने की पूरी आशंका है। एक डॉलर के बदले 52 रुपये का हाल तो और भी बेहाल बना रहा है।
विशेषज्ञों की मानें तो भारत की अर्थव्यवस्था में यह मंदी का दौर है। इसका कोई आसान समाधान नहीं है। असर बढ़ सकता है। विदेश में जो हो रहा है, उसके मद्देनजर सरकार बेहतर काम नहीं कर पा रही है। किसी तरह के बड़े प्रयास करके सरकार घाटा बढ़ाना नहीं चाहती है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का साफ संकेत है कि वित्तीय घाटा बढ़ता जा रहा है और यह अभी और बढ़ सकता है। यानी इस बार आम बजट में भी इस घाटे की मार आम आदमी तक पहुंचनी लाजिमी है। सरकार लगातार वित्तीय घाटे के बहाने फिर महंगाई को जनता के मुंह पर मारने का इरादा बना रही है, लेकिन जनता अब खामोश होती दिखाई नहीं दे रही है। कल तक केवल नेताजी के भाषण पर वोट देने वाली जनता अब हिसाब मांगती है, बिल्कुल हरविंदर सिंह की तरह।

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