शनिवार, 3 दिसंबर 2011

..ताकि चलता रहे विकास का पहिया

सत्यजीत चौधरी
जी में आता है ये मुर्दा चांद-तारे नोच  लूं
इस किनारे नोच लूं, उस किनारे नोच  लूं
एक-दो का जिक्र क्या, सारे के सारे नोच लूं
ऐ गम—ए—दिल क्या करूं, ऐ वहशत—ए—दिल क्या करूं....!!!

       असरारुल हक मजाज यानी मजाज लखनवी की नज्म के इस टुकड़े से यह लेख शुरू करने के पीछे मंशा सिर्फ यह है कि देश में मौजूदा हालात काफी कुछ उनकी जुनूनी कैफियत से मेल खा रहे हैं। महंगाई,बेजोरगारी और अनिश्चितता ने आम भारतीय में कुछ ऐसी ही झुंझलाहट और तड़प भर दी है। आजादी के बाद से लेकर अब तक ऐसी स्थिति कभी पैदा नहीं हुई थी। बुनियादी ढांचागत क्षेत्र में भारी गिरावट, वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में आर्थिक विकास दर का घटकर 6.9 रह जाना और इस सबके के चलते महंगाई का आसमान पर बैठकर नीरो की तरह बांसुरी बजाना बेचैन कर देने वाली घटनाएं हैं।
ऐसे में व्यक्ति देश की सरकार और संसद की तरफ देखता है, लेकिन वहां भी उसे निराशा हाथ लगती है। संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र को आठ दिन हो चुके हैं और इस दौरान एक दिन भी संसद नहीं चल पाई। खुदरा बाजार में एफडीआई लाने के सरकार के फैसले के खिलाफ विपक्ष ने दोनों सदनों को ठप कर रखा है। यह सब ऐसे समय में हो रहा है, जब संसद में कई महत्वपूर्ण बिलों पर चर्चा होनी है और उन्हें पास किया जाना है।
इस तरह की स्थिति किसी भी संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। संसद विधायी कार्यों के लिए होता है, न कि अखाड़ेबाजी और हो—हल्ले के लिए। जहां तक सवाल मौजूदा गतिरोध का है तो इसे शुरू करने की जिम्मेदारी यूपीए सरकार की है। आर्थिक और विदेश मामले से सीधे जुड़े खुदरा एफडीआई को लाने के फैसले से पहले सरकार ने विपक्ष को विश्वास में लेना मुनासिब नहीं समझा। इस बारे में जो घोषणा संसद में की जानी चाहिए थी, वह प्रेस ब्रीफिंग में की गई।
खाद्य सुरक्षा और रक्षा मामलों से जुड़े विधेयकों समेत कोई पैंतिस विधेयक इस सत्र में चर्चा के लिए प्रस्तावित हैं। लोगों को महंगाई से राहत देने और पिछड़े गरीबों को रोटी मुहैया कराने में मददगार इन विधेयकों के पारित न होने से किसका नुकसान होगा।
ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया पर मंदी का साया मंडरा रहा है। अमेरिका और यूरोप के बैंक धीरे-धीरे कर दीवालिया होने के कगार पर हैं। शेयर बाजार के खिलाफ विश्वभर में लोग लामबंद हो रहे हैं, हमारे देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष बिसात पर बैठकर शह—मात का खेल खेल रहे हैं, बिल्कुल मुंशी प्रेमचंद के शतरंज के खिलाड़ी की तरह। अंग्रेज फौज चढ़ी आ रही है तो क्या, खेल जरूरी है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए हमें अपनी संसदीय प्रणाली में बदलाव लाने होंगे। बेशक, हमें एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी होगी, जिसमें विपक्ष और उसकी राय अनदेखी न रह जाए। ब्रिटेन, जिसके बनाए बहुत से कानून को आज भी हमने लागू कर रखा है, में संसदीय प्रणाली बड़ी लचीली और पारदर्शी है। सरकार कोई भी फैसला विरोधी बेंच पर बैठे सदस्यों की सहमति के बिना नहीं लेता है। खाद्य, सुरक्षा और विदेश मामलों से जुड़े मुद्दों पर विपक्ष से राय—मशविरा अनिवार्य है। कई बार जब आॅपोजीशन सहमत नहीं होता तो बहस करा ली जाती है। ऐसा इस लिए है, क्योंकि संसदीय लोकतंत्र का तकाजा यही है। विपक्ष भी सरकार का एक हिस्सा है, एक ऐसे नियंत्रक जो सरकार के गलत फैसलों और नीतियों पर उसे आगाह करे। 
क्या सरकार और विपक्ष इस बात को नहीं जानते कि लोकसभा की कार्यवाही का एक घंटे का खर्च चौदह लाख के आसपास बैठता है। इसी तरह, राज्यसभा में प्रति घंटे दस लाख का खर्च बैठता है। यूपीए—पार्ट के कार्यकाल में अब तक आठ सत्र हुए हैं, जिसमें लोकसभा के आठ सत्रों के तीन सौ इकत्तर घंटे और अड़तालिस मिनट हंगामे और शोर-शराबे की भेंट चढ़ गए। अकेले लोकसभा में ही 5208 लाख रुपए की बर्बादी हुई। इसी प्रकार राज्यसभा का भी तीस प्रतिशत समय हंगामे ने खा लिया। 
काम के हिसाब से देखा जाए तो सबसे ज्यादा विधायी कार्य 1996 में हुए। लोकसभा की कार्यवाही एक सौ इक्यावन दिन चली, जबकि राज्यसभा की एक सौ तेरह दिन।
इधर एक बात जो काफी समय से महसूस की जा रही है कि सरकार कई मामलों में अड़ियल रुख अपना रही है। जनलोकपाल बिल हो या भूमि अधिग्रहण कानून का मुद्दा। अब एफडीआई के मामले में अगर विपक्ष संसद में बहस कराने की मांग कर रहा है तो इसमें गलत क्या है। विपक्ष की कुछ शंकाएं हैं, उनका शमन जरूरी है, क्योंकि यह आम आदमी और उसकी रोटी—रोजी से जुड़ा मसला है। अगर विपक्ष एफडीआई पर मतदान कराने की मांग कर रहा तो गलत नहीं, क्योंकि यह उसका संविधान प्रदत्त अधिकार है। 
सरकार इस मुद्दे पर बहस और मतदान से सिर्फ इसलिए बच रही है, क्योंकि सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस और संजय सिंह समेत कई कांग्रेसी सांसद एफडीआई के खिलाफ मुखर हैं। सरकार को लग रहा है कि कहीं मतदान में कोई सियासी खेल न हो जाए।
सरकार यह तो कह रही है कि विपक्ष हंगामा कर संसद का वक्त बर्बाद कर रहा है। कई बेहद जरूरी विधेयक चर्चा के लिए प्रस्तावित हैं। सरकार अगर एफडीआई पर चर्चा और मतदान से बचना चाह रही है तो इसका सीधा मतलब है कि उसके दिल में खोट है। सरकार का कहना है कि उसने सर्वदलीय बैठक बुलाकर आम सहमति का प्रयास किया था, लेकिन विपक्षी खेमा सुनने को तैयार नहीं है। 
वैसे देखा जाए तो संसद हो या राज्यों की विधानसभा , एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता, जब विपक्ष ने किसी मुद्दे पर सरकार की मदद की हो। साठ के दशक में हालात दूसरे थे। वह राष्टÑ निर्माण का दौर था और विपक्ष भी सकारात्मक रूप से सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलता था। लेकिन बाद में सत्ता की भूख ने लोकतंत्र की बड़ी पंचायतों को मछली बाजार में तब्दील कर दिया। जब कांग्रेस विपक्ष में थी तो उसने भी संसद को ठप किए रखा था, अब भाजपा और दीगर विरोधी दल भी यही कर रहे हैं। कोई भी यह सोचने—समझने को तैयार नहीं है कि संसद का समय अमू्ल्य है। सरकार द्वारा हंगामे के चलते अगर कोई विधेयक लटकता है तो उसका देश की आर्थिक सेहत और भविष्य की योजनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यही नहीं, संसद को जब हंगामे का केंद्र बनाया जाता है तो लोकतंत्र की इस सर्वोच्च संस्था की साख पर बट्टा लगता है।
मौजूदा हालात में सरकार और विपक्ष को मिलकर काम करना होगा। अगर संसदीय परंपराओं को बदलना पड़े तो बदल देना चाहिए, लेकिन संसद चलती रहनी चाहिए, ताकि विकास का पहिया चलता रहे। राष्टÑ के हित में सरकार को हठ छोड़ देनी चाहिए। मत•ोद वाले मामलों में सहमति बनाने का दायित्व सरकार का है, जिससे वह बच रही है। यह सरकार की नीयत पर सवाल खड़े कर रही है। क्या गतिरोध को लंबा खींचकर सरकार कुछ विवादित विधेयकों को पेश करने से बचना चाह रही है। साफ है सरकार राजनीतिक प्रबंधन के उपायों का भी सहारा लेती नहीं दिखाई दे रही है।
यदि सरकार और आॅपीजिशन इसी तरह अड़े रहते हैं तो इसका नतीजा संसदीय परंपरा के लिहाज से ठीक नहीं होगा। यह सही है कि कैबिनेट को किसी भी मामले में फैसला लेने का सर्वाधिकार है, पर यह भी सचाई है कि किसी मामले में संसद का बहुमत खिलाफ है तो उस फैसले की उपादेयता ही कठघरे में खड़ी हो जाती है।

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