रविवार, 11 दिसंबर 2011

यह दिल्ली है, हिंदुस्तान का दिल

                                              " राजधानी के सौ साल पर विशेष " 
सत्यजीत चौधरी
यह दाग की देहली है यहां हर कूचे , हर गली में गालिब की रूह बसती है। मीर की शायरी यहीं परवान चढ़ी। यह हिंदुस्तान का दिल है। यह दिल्ली है। कभी यह इंद्रप्रस्थ हुआ करती थी, राजाओं की राजधानी। मुगलों ने भी पसंद किया। बाद में अंग्रेजों ने इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगाए। सौ साल पहले जहां ट्रामें दौड़ा करती थीं, वहां अब मेट्रो दौड़ रही है। विभिन्न राज्यों से आए लोगों ने इसे अपनी भाषा और संस्कृति से और खूबसूरत बनाया। 
 इन सौ सालों के दौरान दिल्ली फलती और फैलती गई, लेकिन इंसानी नसों के तरह फैली पतली गलियां और तंग कूचों में आज भी पुरानी रवायतें आबाद हैं। आज भी चांदनी चौक में परांठों वाली गली से व्यंजनों की उठती खुशबू लोगों को अहसास दिलाती है कि अब भी उनकी विरासत का काफी कुछ सुरक्षित है। गली कासिम जान और कूचा चुहिया मेम साहब का में अब भी बकरियां मिमयाती हैं और बिरयानी और कबाब की खुशबू तबियत खुश कर देती है। चांदनी चौक और सदर बाजार आज भी दिल्ली ही नहीं पूरे उत्तर भारत की जरूरत को पूरा करते हैं। 
दिल्ली की पुरानी हवेलियों को बिल्डरों की नजर लग गई। अस्सी के दशक से एक-एक कर हवेलियों पर बिल्डर काबिज होते चले गए। एक वक्त ऐसा भी आया, जब बल्लीमारान में गालिब की हवेली पर कोयले की टाल खुल गई थी।
दिल्ली के विकास को रफ्तार दी इसके ट्रांसपोर्ट सिस्टम ने। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा। सत्तर से अस्सी के दशक के बीच दिल्ली में तांगे दौड़ा करते थे। गुरुद्वारा सीसगंज से कनॉट प्लेस के लिए फटफट सिक्स सीटर चलते थे। उससे और पहले, 1908 में जब इस शहर के लोगों ने ट्रामें देखीं तो भोचक्के रह गए थे। फिर डबल डेकर बसों ने उन्हें हैरत में डाला। वक्त के साथ कारें आर्इं, आॅटो रिक्शे दौड़ने लगे।
आज बदहवासों की तरह दौड़ रही दिल्ली का पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम अपने शबाब पर है। मेट्रो दिल्ली की लाइफ लाइन हैं तो सीएनजी बसें बहुतों की पहली पसंद। कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिल्ली में एयरकंडीशन बसे चलेंगी।
वैसे तो दिल्ली की दिलकशी में सभी ने कुछ न कुछ जोड़ा, लेकिन पिछले कुछ सालों में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इसे हसीन और आरामदेह बनाने में काफी मशक्कत की। कॉमन वेल्थ गेस्म के दौरान भले ही घोटालों-घपलों की वजह से केंद्र और दिल्ली सरकार बदनाम हुई, भले ही खेल आयोजन समिति के प्रमुख सुरेश कलमाडी तिहाड़ पहुंच गए, लेकिन एक बात है कि इस आयोजन के दौरान दिल्ली कुछ और दमक गई। सड़कें चौड़ी हुर्इं, नए तर्ज के बस स्टैंड बने। कई फ्लाईओवरों ने आकार लिया। 
दिल्ली को वैज्ञानिक विस्तार देने में अंग्रेज वास्तुविद् लुटियंस की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। नई दिल्ली की शान कनॉट प्लेस का खाका तैयार करने में लुटियंस ने काफी मेहनत की थी। जॉर्ज पंचम के मामा ड्यूक आॅफ कनाट की भारत यात्रा की यात्रा को स्मृतियों को समर्पित कनॉट प्लेस के लिए माधोगंज गांव को चुना गया। इस बिजनेस सेंटर के निर्माण के साथ ही पार्लियामेंट स्ट्रीट और आसपास के इलाकों का विकास होने लगा। माधोगंज गांव के चारों तरह कीकर और बबूल के जंगल थे। उन्हें साफ कर कनॉट प्लेस का निर्माण किया गया। 1933 में जब यह बनकर तैयार हो गया तो यहां जाने के लिए कोई दुकानदार राजी न था। कुछ लोग इसे भूतों की बस्ती कहा करते थे। सबसे पहले एक पारसी युवक ने जनरल स्टोर खोला। फिर दूसरे लोग आए और बसता चला गया कनॉट प्लेस। पहले यह एलीट क्लास की पसंदीदा जगह थी। इंडियन कॉफी हाउस में राजनीतिक चर्चाएं और साहित्यिक मंथन होता था।
आज कनॉट प्लेस की शॉपिंग दो हिस्सों में बंटी हुई है। कनॉट सर्कल की चमकती—दमकती दुकानों में पैसे वाले लोग जाते हैं, जबकि आम आदमी जनपथ और पालिका बाजार के अंडरग्राउंड बाजार जाकर अपने अरमान पूरे करता है।
गर्ज यह कि मुगलों, लोदियों, तुगलकों और अंग्रेजों की यह मिली—जुली विरासत दिन पर दिन और हसीन और जवां होती जा रही है।
लेकिन एक बड़ा सवालिया निशान भी है। दिल्ली की खूबसूरती को कई पैबंद दागदार बना रहे हैं। हर साल यहां पांच लाख लोग रोजी—रोटी के जुगाड़ में आते हैं और फिर यहीं बस जाते हैं। एनसीआर में कहीं भी बसेरा बनाते हैं, लेकिन ज्यादातर दिल्ली में काम करने आते हैं। 
वैसे तो विभिन्नताएं दिल्ली को दिल वालों के शहर की एक परिभाषा देती है, लेकिन जब बात आती है सभी के लिए बराबर जन—सुविधाअं की, तो दिल्ली शहर एक अविकसित बस्ती की तरह लगता है, जहां उन लोगों के लिए कई जगह नहीं जो इस शहर की जीवन—रेखा कहलाते हैं।

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