रविवार, 18 सितंबर 2011

‘खेल’ खेल में............

Yashpal Singh
         केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन ने खेल विधेयक का मसौदा पेश कर जैसे बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। खेल संघों पर सालों से काबिज लोगों ने इस मसौदे का जोरदार विरोध किया है। इस मसौदे का समर्थन करने वालों को वे बिना देर किए खारिज कर देना चाहते हैं। राष्ट्रीय खेल की कमान थामने वाले भारतीय हॉकी संघ (आईएचएफ) ने एशियन चैंपियंस ट्रॉफी जीतने वाली हॉकी टीम के साथ किस तरह का मजाक किया, इसको पूरी दुनिया ने देखा। आखिर इस निराशजनक दौर में देश में खेल का स्वस्थ माहौल कैसे बने? आजकल के ताजा अंक में विश्लेषण कर रहे हैं यशपाल सिंह.


क्या वजह है कि हम आजादी के 64 साल बाद भी खेलजगत में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने में नाकामयाब रहे हैं। भारतीय हाकी टीम के नवनियुक्त कोच माइकल नोब्स के पूर्ववर्ती ब्रासा की जब विदाई हुई, तो उन्होंने एक बड़े मार्के की बात कहीं। बकौल ब्रासा, इस देश में अजीब चलन है, यहां प्रतिभाएं बेशुमार हंै, लेकिन उन्हें राह दिखाने वाले चंद ही लोग हैं और जो हैं, उन्हें लचर सिस्टम तोड़ कर रख देने के लिए आमादा रहती है। ब्रासा की यह तल्ख टिप्पणी मायने रखती है और एक तरह से यह खेलों के नाम पर पसरे लुंज- पुंज सिस्टम की पोल भी खोलती है। हाल ही में एशियाई चैंपियन हो कर लौटी भारतीय टीम के साथ हॉकी
इंडिया के हुए बर्ताव या फिर खेल विधेयक को लेकर लामबंद खेल संघों की कवायद बताती है कि एक स्वच्छ, पारदर्शी और परिणामोन्मुख ढांचा तैयार करने की मजबूत मनोस्थिति में न सरकार दिख रही और न ही खेल पदाधिकारी।
हाल ही में देश भर में खेलों को संचालित करने वाले खेल संघों और महासंघों को राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक के जरिए संचालित करने की सरकारी कोशिशों को दम तोड़ते करोड़ों खेल प्रेमियों ने बखूबी देखा होगा। चित भी मेरी, पट भी मेरी के अंदाज में ज्यादातर संघ, सरकार खासकर खेल मंत्री अजय माकन के खिलाफ बांहें चढ़ाए खड़े दिखाई दिए। वजह साफ थी कि यदि यह विधेयक पारित होता तो वर्षो से विभिन्न संघों के पदों पर जोंक की तरह चिपके पदाधिकारियों को इस्तीफे देने पड़ते या फिर नई पीढ़ी को आगे लाने की कवायद का हिस्सा बनना पड़ता।
इस खेल विधेयक के तहत कोई भी पदाधिकारी दो बार से ज्यादा अपने कार्यकाल को विस्तार नहीं दे सकेगा। इस बिल को कानून में तब्दील होने के बाद 70 साल से ज्यादा उम्र का व्यक्ति खेल प्रबंधन का काम नहीं देख सकेगा। बिल का एक और अहम पहलू यह था कि खेल संघों में चुनाव के नाम पर होने वाली बंदरबाट में कोई हेराफेरी की गुंजाइश नहीं रहती। मतलब पदलोलुप पदाधिकारियों की दुकानें बंद हो जाती और खेल संघों के चुनाव में 25 फीसदी अधिकार खिलाड़ियों को दिए जाते। खेल संघ अक्सर इस बात की दुहाई देते रहे हैं कि वह आईओए (भारतीय ओलंपिक संघ) के अधीन है, जो स्वायत्तता का प्रतीक है और सरकार कोई इमदाद उन्हें नहीं देती। ऐसे में किस बिना पर उन्हें सरकारी बंदिशों का मोहताज बनाया जा रहा है। दरअसल, खेल विधेयक के खिलाफ लामबंद ज्यादातर खेल संघों की कमान रसूखदार राजनीतिज्ञों के हाथों में हैं और दो चार साल से नहीं बल्कि दस-दस वर्ष से ज्यादा समय से वह निर्विरोध चयनित होने की रस्मअदायगी करते रहे हैं। यदि यह बिल कानून में तब्दील होता, तो लगभग 14 साल से आईओए के अध्यक्ष पद पर कब्जा जमाए सुरेश कलमाड़ी समेत करीब डेढ़ दजर्न राजनीतिज्ञ या नौकरशाह विभिन्न खेल संघों की कमान नहीं संभाल पाते, एक-एक कर उनकी विदाई तय हो जाती। फिलहाल कामनवेल्थ गेम्स में 1200 करोड़ के घोटोले में कलमाड़ी तिहाड़ में बंद अपने दुर्दिनों पर आंसू बहा रहे हैं। पुणो के इस दमदार सांसद ने डेढ़ दशक तक भारतीय खेलों की दशा और दिशा तय करने में वनमैन शोमैन की भूमिका अदा की। यह बात दूसरी है कि देश में हुए खेल महामेले यानी कामनवेल्थ में उनकी कारगुजारियों की कलई खुल गई और अपने संगी-साथियों के साथ उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। जब देश में खेलों को संचालित करने वाले निकाय आईओए अध्यक्ष का यह हाल है तो सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि खेलों के आयोजन, चयन प्रक्रिया और हाईटेक कोचिंग के नाम पर पसरे सिस्टम में किस कदर आमूल-चूल बदलाव की दरकार है। ऐसा नहीं कि देश ने आजादी के बाद खेल उपलब्धियों में नाम नहीं कमाया।
क्रिकेट के ग्लैमर शो के इतर बाकी गेम्स में भी भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धाक जमाई, लेकिन क्या आप इस तथ्य पर गौर फरमाना चाहेंगे कि हमारे खिलाड़ियों ने व्यक्तिगत स्पर्धा में ज्यादा नाम बटोरा। शतरंज में विश्वनाथन आनंद की गर्वीली उपलब्धियां हो या फिर टेनिस में सदाबहार लिएंडर पेस, महेश भूपति, एथलेटिक्स में मिल्खा सिंह, पीटी उषा, अंजू जाजर्, बिलियर्डस में माइकल फरेरा, यासिन मर्चेट, गीत सेठी या अब पंकज आडवाणी, शूटिंग में राज्यवर्धन राठौर, अभिनव बिंद्रा, फिर कुश्ती में सुशील या मुक्केबाजी में बिजेंदर और बैडमिंटन में साईना नेहवाल। फेहरिश्त लंबी है, जिन्होंने अपने काल में नायाब प्रदर्शन कर भारतीयों को सिर ऊंचा करके जीने के पल मुहैया कराए हैं।

अब खेल की तस्वीर का दूसरा रुख। क्रिकेट टीम के दो-दो बार विश्व कप जीतने का श्रेय बीसीसीआई का पेशेवराना अंदाज और एक पुख्ता सिस्टम ईजाद करने पर जाता है, लेकिन आईओए के तहत आने वाले बाकी खेलों की टीम स्पर्धा में अंगुली पर गिनने लायक उपलब्धियां गिनाते वक्त आप जल्द ही चुप्पी साधने को विवश हो जाएंगे, क्योंकि वजह साफ दिखती है।
आनंद किसी सिस्टम की देन नहीं है। पेस के पिता वेस से पूछिए कि उन्होंने बेटे को लायक बनाने के लिए निजी स्तर पर कितने भागीरथ प्रयास किए होंगे। बिंद्रा के पिता बता सकते हैं कि शूटिंग का स्टार बनाने के लिए उन्होंने अपने निजी संसाधनों को कितना परवान चढ़ाना पड़ा है। यही स्थिति पीटी उषा या गीत सेठी की है। पंकज आडवाणी से पूछिए कि विश्व चैंपियन बनने के बाद भी उनका फेडरेशन उन्हें किसी प्रायोजक की सेवाएं उपलब्ध क्यूं नहीं करा पाता। साईना की सफलता का राज पूछना हो तो कोई सरकारी सिस्टम नहीं बल्कि धुन के पक्के उनके पिता हरवीर सिंह या परिश्रमी मां उषा से मिलिए। किस तरह उन्होंने निजी खुशियों को होम कर दिया, अपनी लाड़ली के सफल करियर की खातिर। पूछिए सवाल अपने खेल मंत्रालय से, हाकी को संचालित करने वाली संस्थाओं से, कि क्यों भारतीय हाकी टीम दिनोंदिन गर्त में जा रही है। क्यों नहीं पदाधिकारी निजी स्वार्थो से ऊपर उठकर हाकी इंडिया और आईएचएफ में छिड़ी रार को खत्म कर निष्पक्ष चुनाव लड़ने की भूख दिखाते। सवाल हाकी का नहीं बाकी खेलों का भी है, जहां साई, सरकार और खेल संघों में समन्वय हो तो हम अंतराष्ट्रीय स्तर पर टीम और व्यक्तिगत, दोनों स्पर्धाओं में हैरतअंगेज प्रदर्शन की बानगी पेश कर सकते हैं। लेकिन नहीं, हम समन्वय में भी ‘खेल’ ढूंढ़ ही लेंगे? क्रिकेट टीम के दो-दो बार विश्व कप जीतने का श्रेय बीसीसीआई का पेशेवराना रुख और एक पुख्ता सिस्टम ईजाद करने पर जाता है, लेकिन आईओए के तहत आने वाले बाकी खेलों की टीम स्पर्धा में अंगुली पर गिनने लायक उपलब्धियां गिनाते वक्त आप जल्द ही चुप्पी साधने को विवश हो जाएंगे, क्योंकि वजह साफ दिखती है।

खेल संघ सरकार की बपौती नहीं
खेल बिल पर बेवजह शोरशराबा कर रही है सरकार। खेल संघ उनकी बपौती नहीं हैं, वह आईओए के अधीन काम करते हैं। सरकार को चाहिए कि वह खेल संघों पर तानाशाही चलाने की बजाए, देश में प्रतिभा निकासी के लिए उन्हें और सुविधाएं मुहैया कराए। हम निजी स्तर पर खासे प्रयास कर रहे हैं। तीरंदाजी में देश ने पिछले चार साल में शानदार परिणाम दिए हैं।
विजय कुमार मल्होत्रा, तीरदांजी संघ अध्यक्ष

सबकी जवाबदेही तय हो
हाकी का हाल क्या है। सब को पता है। हाकी इंडिया का क्या तमाशा हुआ है, इनामी राशि के नाम पर, शर्म आती है बयां करते वक्त। सरकार जवाबदेही तय करने की भूख नहीं दिखाती। भाई-भतीजावाद, पारदर्शिता के अभाव ने भारतीय खेलों को बहुत नुकसान पहुंचाया है। वक्त आ गया है कि अब कोच से लेकर खेल संघ और साई से लेकर अन्य सरकारी निकायों की जवाबदेही तय की जाए और खेल बिल को अंजाम तक पहुंचाया जाए।
परगट सिंह, पूर्व हाकी खिलाड़ी

राजनीतिज्ञ हावी खिलाड़ी हाशिए पर
आईओए की छत्रछाया में काम कर रहे खेल संघों का बहीखाता खंगालिए। ज्यादातर खेल संघों पर दमदार राजनीतिज्ञ काबिज हैं। मसलन विजय कुमार मल्होत्रा एक दशक से ज्यादा तीरदांजी संघ के कर्ताधर्ता हैं। यही हाल अभय सिंह चौटाला (मुक्केबाजी), अजय चौटाला (टेटे), सुखदेव ढींढसा (साइक्लिंग), जगदीश टाइटलर (जूडो महासंघ), जर्नादन गहलोत (कबड्डी) आदि का भी है। यह लिस्ट और लंबी है। होना यह चाहिए कि संघों में खिलाड़ियों को भी तरजीह मिले। किसी एक संघ या फेडरेशन का नाम बताइए, जिसमें कोई नामचीन खिलाड़ी अध्यक्ष पद पर आसीन हो। मुंबई क्रिकेट संघ का हालिया उदाहरण सबके सामने हैं। दलीप वेंगसरकर ने पिच पर दुनिया के एक से एक घाघ गेंदबाज को पस्त किया होगा, लेकिन जब वह अध्यक्ष पद के लिए सियासतदां विलासराव देशमुख के सामने खड़े होते हैं, तो क्लीन बोल्ड होने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं होता। यह एक संजाल है, जिसे तोड़ना ही होगा। जैसा कि पूर्व क्रिकेटर कपिल देव भी कहते हैं कि दिक्कत राजनीतिज्ञों से नहीं, उनकी वजह से चयन प्रक्रिया में चलने वाले भाई भतीजवाद और प्रभुत्व वाली शैली से है। दुर्भाग्य देखिए कि यह महान क्रिकेटर अपने राज्य हरियाणा में बेगाना सा है तथा वहां की क्रिकेट इकाई में एंट्री की असफल कोशिश भी कपिल के नाम दर्ज है और वेंगी हो या फिर कपिल या परगट, ऐसे महान खिलाड़ियों को खेल संघों से दूर परे रखने की साजिशों के नतीजे हैं कि देश में पारदर्शी चयन प्रक्रिया अंजाम तक नहीं पहुंच पाती। सरकार के हाथ बंधे हैं या बांध दिए गए हैं, क्योंकि कहीं उसके अपनों का दामन दागदार है, तो कहीं विपक्ष का कोई दिग्गज की अहं आड़े आ जाती है। सूरत ए हाल वही है। कुछ भी नहीं बदलता।
 खेल उपकरणों के नाम पर बंदरबांट, निचले स्तर प्रतिभा निकासी में हो रही खानापूर्ति खेल में खेल कर जाती है और हम हर बार खिलाड़ी बलि का बकरा बन जाते हैं। स्यापा मचता है, संसद में बहस-मुबाहिसा होता है, लेकिन बदलाव करने की भूख सरकारी नुमाइंदे नहीं दिखा पाते। क्योंकि बदलाव सरकार की प्रवृत्ति में नहीं होती, उसे बस ढर्रा चाहिए। ( लेखक दैनिक जनवाणी के समूह संपादक हैं )
                                                                                                                                                साभार जनवाणी 

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