शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

........तो सरकार कि नीति ने सबको छला

                                          सत्यजीत चौधरी 
  विकास के सुपर हाईवे पर जिस बदहवासी और बेतरतीबी से सरकार दौड़ रही थी, उसका यह अंजाम तो होना ही था। औने—पौने दाम पर काश्तकारों की जमीन ली गई, फिर लैंड यूज बदलकर बिल्डरों को सौंप दी गई। मजबूरन अदालतों को स्पीड ब्रेकर बनना पड़ा। नोएडा और ग्रेटर नोएडा में शासन द्वारा अधिग्रहीत कुछ भूखंडों पर हो रहे निर्माण कार्य पर कोर्ट ने रोक लगा दी है। इससे सरकार को तो कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन उन हजारों लोगों अरमान चकनाचूर हो गए, जो अपने आशियाने का ख्वाब पाले बैठे थे।  कई बड़े और छोटे बिल्डरों के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। आवासी प्रोजेक्ट्स में करोड़ों रुपए फंसा चुके बिल्डर्स से निवेशक पैसे वापस मांग रहे हैं। सबने सरकार की बेसिर-पैर की भूमि अधिग्रहण नीति का खामियाजा भूगता। नोएडा एक्सटेशन फ्लैट्स बायर एसोसिएशन के बैनर तले निवेशकों ने हाईकोर्ट की शरण ली है। दूसरी तरफ, प्राइवेट बिल्डर्स नोएडा अथॉरिटी, किसानों और सरकार को मनाने की कोशिश में लगे हैं। इसके साथ ही शुक्रवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मायावती सरकार की मुश्किलें बढ़ाते हुए पिछले दस साल के दौरान समूचे प्रदेश में हुए भूमि अधिग्रहण का ब्योरा तलब कर लिया है।
    देश की आबादी तेजी से बढ़ रही है। खेती महंगी और अनिश्चिय का सौदा बनने से किसान शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। महानगरों और मेट्रो सिटी में बीस फीसद ऐसा तबका है, जिसके पास पैसा ही पैसा है। इन लोगों के लिए मकान चाहिए। जहां तक दिल्ली का सवाल है, हर कोई आसपास ही बसना चाहता है। मकानों से ठसाठस हो चुकी दिल्ली के बाद एनसीआर में लोगों की दूसरी पसंद गुड़गांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद, नोएडा और ग्रेटर नोएडा है। जाहिर है, लोगों की इस चाह को संबंधित राज्यों की सरकारें हवा दे रही हैं।
    आम लोगों में धारणा है कि बिल्डर और सरकार की साठगांठ से सारा गोरख—धंधा चल रहा है। हमने कई बिल्डरों से बात की। मामला अदालत में होने की वजह से कोई सीधे बोलने को तैयार नहीं हुआ, लेकिन अधिसंख्य ने माना कि लोगों को मकान चाहिए और हम उनका सपना पूरा करते हैं। कम या ज्यादा मुनाफे को लेकर तो बात हो सकती है, लेकिन किसानों के साथ बिल्डरों के छल का आरोप गलत है।
    बिल्डर और निवेशक दोनों का मानना है कि भूमि अधिग्रहण को लेकर सरकार की न तो काई स्पष्ट नीति है और न कोई साफ नजरिया। विकास के लिए कृषि भूमि का अधिग्रहण एक बात है, लेकिन जब हमारी सरकारें अंधाधुंध शहरीकरण  के लिए किसानों से औने—पौने दाम पर जमीनें खरीदती है तो सारे नियम और कायदे-कानून ताक पर रख दिए जाते हैं। बिल्डरों का कहना है कि नोएडा और ग्रेटर नोएडा में जितनी •ाी भूमि सरकार ने आवासीय सेक्टर के लिए बिल्डरों को उपलब्ध कराई, उसके लैंड यूज के बारे में उनके पास कोई प्रमाण नहीं है।
   किसान अलग ड़के हुए हैं। शाहबेरी और पतवाड़ी गांवों को लेकर कोर्ट के फैसले का असर नोएडा तक पहुंच गया है। आपात धारा के तहत अधिग्रहीत किए गए भूखंडो को किसान अब वापस मांग रहे हैं। किसानों का कहना है कि नोएडा अथॉरिटी ने बिल्डरों से जमीनों की जो कीमत वसूली है, उसका पचास फीसद हिस्सा उनके खाते में जाना चाहिए। इसके अलावा स•ाी गांवों की आबादी को ‘जैसी है—जहां हैं’ के आधार पर छोड़ने की •ाी मांग कर रहे हैं।
   नोएडा और ग्रेटर नोएडा के किसान •ाी कुछ बेहद मुश्किल मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि आबादी मामलों का निस्तारण किसानों के हितों को ध्यान में रखकर किया जाए। उनकी एक मांग यह •ाी है कि मुआवजा नहीं लेने वाले किसान को उनकी जमीन वापस दी जाए। इसके अलावा जो मकान जहां बने हैं, उन्हें आबादी मानते हुए छोड़ दिया जाए।  अधीग्रहीत हो चुकी भूमि के एवज में पांच प्रतिशत प्लॉट अलॉट किए जाएं। तकनीकी फाल्ट के चलते ली गई 80 एकड़ जमीन किसानों को वापस की जाए। दरअसल, किसानों की इन मांगों में सियासी रंग छिपे हैं। इनमें से कई मांगें ऐसी हैं, जिनकी फिजिबिलिटी शू्न्य है। इन मांगों को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के 26 जुलाई के प्रस्तावित फैसले पर सबकी नजरें टिकी हुर्इं हैं।
    इस मामले में बिल्डरों की तरह निवेशक •ाी तबाह हुआ है। सरकार की गलतियों की वजह से हजारों निवेशकों का अपने मकान का सपना चूर-चूर हो गया है। रोटी और कपड़े की तरह मकान लोगों के लिए एक बड़ा मसला है। हर आदमी चाहता है कि जिंदगी •ार किराये के मकानों में धक्के खाने से अच्छा है, पेट काटकर अपना आशियान बना लेना। सरकारें •ाी मध्यम वर्ग के •ाीतर दबी इस ंिचंगारी को हवा देती रहती हैं।
    ग्रेटर नोएडा के मामले में सरकार पूरी तरह बेनकाब हुई है। यहां का मामला विवादित हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने  किसानों के हक में फैसला दिया। अदालत ने •ाी माना कि ग्रेटर नोएडा में जमीनों का अधिग्रहण आपात प्रक्रिया के तहत किया गया था। रीयल स्टेट मामलों पर रिसर्च कर रही कंपनी आॅगटिक्स के एमडी मनोज मिश्र का मानना है कि ग्रेटर नोएडा के मामले में दो बातें अहम रहीं। इस भूमि का अधिग्रहण सामान्य तौर पर होना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं हुआ। दूसरी बात, इसका अधिग्रहण यह कहकर किया गया था कि इस पर उद्योग लगाए जाएंगे, जबकि बाद में इसे आवासों के लिए बिल्डरों को दे दिया गया।  उद्योग के नाम पर किसानोें बेहद कम दाम पर ली गई जमीन रियल एस्टेट को ऊंचे दाम पर बेच दी गई। 
    वैसे, ग्रेटर नोएडा में लंबे समय से इस एक्ट में बदलाव की मांग होती रही है। इस इलाके का काश्तकार काफी लंबे समय से जागरूक है। 1982 में भूमि अधिग्रहण को लेकर सरकार की नीतियों के खिलाफ एक लंबा आंदोलन चला था। नोएडा जन सहयग समिति के अध्यक्ष चौधरी बिहारी सिंह के नेतृत्व में किसानों ने सरकार से •ाूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव की मांग की थी।
    दरअसल देखा जाए तो भूमि अधिग्रहण को लेकर किसी •ाी प्रदेश में कोई स्पष्ट कानून नहीं रहा। अंग्रेजों के बनाए कानून  में हेरफेर कर लागू करती रही हैं। राजस्थान में यह नियम बना था कि किसानों से जमीन अधिग्रहण के बाद उनक प्रजेक्टों में हिस्सेदारी दी जाए। इस मामले में हरियाणा के भूमि अधिग्रहण नियमों को मॉडल माना जा सकता है। हरियाणा सरकार ने यह छूट दी है कि खरीद—फरोख्त करने वाले आपस में जमीन का रेट तय कर सकते हैं। यूपी में अब जाकर सरकार ने इस फार्मूले पर काम करना शुरू किया है। बेहतर तो यह होता कि यूपी सरकार शहरीकरण को लेकर पुर्नमथन करे, कृषि भूमि के अधिग्रहण की सुविचारित नीति बनाए, ताकि कई किसान ठगा—सा महसूस न करे, न ही कई निवेशक छला जाए। 

बिल्डरों पर असर 
   अदालती फैसलों का सबसे ज्यादा असर बिल्डरों पर पड़ा है। ऊंट-पटांग भूमि अधिग्रहण नीति के चलते उनके करोड़ों रुपए फंस गए हैं। निवेशकों का दबाव अलग है। अदालत ने बिल्डरों से किसानों के लिए जमीन लौटाने के लिए कहा है, लेकिन जहां कई-कई मंजिला इमारतें खड़ी हो गर्इं हैं, आधार•ाूत ढांचा विकसित किया जा चुका है, वहां बिल्डर क्या करें।
बिल्डरों का कहना है कि अदालती अदेशा का हवाला देकर सरकार ने चुप्पी साध ली है। नोएडा अथॉरिटी और प्रोजेक्ट से जुड़ी अन्य एजेंसियां बिल्डरों की सुन नहीं रही हैं। 
   अदालत के फैसले से सबसे ज्यादा प्र•ाावित रियल्टी कंपनी आम्रपाली का कहना है कि उस इलाके में उसकी टाउनशिप में जो लोग फ्लैट नहीं लेना चाहते, उन्हें कंपनी पूरा पैसा वापस कर देगी। कंपनी का कहना है कि साख का सवाल है और उसे बचाने के लिए वह कुछ •ाी करने के लिए तैयार है।
   आम्रपाली समूह के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक अनिल कुमार शर्मा ने एक मुलाकात में बताया कि आम्रपाली ने 3,50 से अधिक निवेशकों को अपनी दूसरी परियोजनाओं में स्थानांतरित कर दिया है। उन्होंने कहा कि जो लोेग दूसरे प्रोजेक्ट्स में रुचि नहीं रखते, कंपनी उनकी पाई-पाई लौटाने को तैयार है। कंपनी उन्हें सर्विस टैक्स की रकम •ाी वापस कर रही है। श्री शर्मा ने कहा, साख हमारी पहली प्राथमिकता है। 
   कंपनी कुछ •ाी कहे इसके विपरीत आम्रपाली की स्मार्ट सिटी टाउनशिप के कम से कम 4,00 निवेशकों के अपने घर का सपना बिखर चुका है। कई छोटे बिल्डर इस स्थिति में नहीं हैं कि वे पैसा लौटाएं। वे अदालत की शरण में जाने की तैयारी में हैं।  
इसी मामले में प्र•ाावित एक और रियल्टी कंपनी सुपरटेक का कहना है कि वह उप•ाोक्ताओं से लिए गए सर्विस टैक्स को लौटाने के मुद्दे पर कानूनी राय ले रही है। सुपरटेक समूह के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक आरके आरोड़ा का कहना है कि अधिसंख्य बिल्डर इंफ्रास्ट्रचर खड़ा कर चुके हैं। कई प्रोजेक्ट्स में तो कई-कई फ्लोर खड़े हो चुके हैं। उनका कहना है कि पुल, कम्युनिटी सेंटर, गैस पाइपलाइन वगैरह के ढांचों करोड़ों लग चुका है। 
   दरअसल, अदालत के फैसले से सुपरटेक का 1 एकड़ में फैली एक आवासीय योजना पर असर पड़ा है। कंपनी के 50 खरीदार इस फैसले से प्र•ाावित हुए हैं अर इनमें से अधिकतर लोग दूसरे प्रजेक्ट में शिफ्ट होना चाहते हैं। आरके अरोड़ा •ाी पैसों से ज्यादा साख को महत्व दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि जो लोग अपनी रकम वापस लेना चाहते हैं, उन्हें कंपनी ब्याज सहित पूरा पैसा वापस कर रही है। जब जनवाणी ने उनसे सेवा शुल्क के बारे में पूछा तो उनका जवाब था कि कंपनी इस बारे में कानूनी विकल्पों पर विचार कर रही है कि क्या सरकार से इसे वापस लिया जा सकता है। 
    हमने जितने •ाी बिल्डरों से बात की, वे सरकार की नीतियों और अदातल के फैसले के बाद उसकी चुप्पी से नाराज हैं, लेकिन कोई बोलने को तैयार नहीं है। एक बिल्डर ने कहा कि मीडिया का एक तबका हमें कठघरे में घसीटने के फिराक में है। उनका कहना था कि इसमें बिल्डर का क्या दोष। हमें आवासीय बिल्डिंग्स खड़ी करने के लिए जमीन दी गई। सरकार ने किस मकसद से उसे एक्वायर किया था, इससे हमारा कोई सरोकार नहीं है।

अदालत ने सरकार से दस साल का हिसाब मांगा
       इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। प्रदेश की सबसे बड़ी अदालत ने मायावती सरकार से पिछले 1 साल के दौरान हुए भूमि  अधिग्रहण की जानकारी सार्वजनिक करने को कहा है। कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण पर ग्रेटर नोएडा व नोएडा के कई गांवं के किसानों की अर्जी पर फैसला आने से पहले शुक्रवार को यूपी सरकार को निर्देश दिए कि सरकार बिल्डर्स क दी गई जमीन की पूरी जानकारी सार्वजनिक करे। अदालत ने यह •ाी आदेश दिया कि सरकार पिछले 1 साल के दौरान ग्रेटर नोएडा व नोएडा क्षेत्र में हुए भूमि अधिग्रहण की जानकारियां सार्वजनिक करे।
      गौरतलब है कि ग्रेटर नोएडा के कई किसानों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिकाएं दाखिल की हैं। किसानों का इल्जाम है कि उनकी मर्जी के खिलाफ उनसे पूछे बगैर उनकी जमीन का अधिग्रहण किया गया। उन्हें इसका उचित मुआवजा •ाी नहीं दिया गया। इन स•ाी याचिकाओं पर कोर्ट 26 जुलाई को सुनवाई करेगी। इससे पहले अदालत ने दो गांवों की करीब 60 एकड़ जमीन का अधिग्रहण रद्द कर दिया था।
 प्रभावित  बड़े प्रोजेक्ट्स 
    भूमि  अधिग्रहण को लेकर सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसलों ने बिल्डरों की कमर तोडकÞर रख दी है। कई बड़े प्रोजेक्ट्स में चार से लेकर छह मंजिला इमारतें खड़ी हो चुकी हैं। इंफ्रास्ट्चर पर काम चल रहा था। सडक बनाई जा चुकी हैं। पुल, पेट्रोल पंप, स्कूलों और कम्युनिटी सेंटर के ढांचे खड़े हो चुके हैं। निवेशक अब बिल्डरों से सूद समेत पैसे वापस मांग रहे हैं। •ाारी मन से बिल्डर निर्माणाधीन ढांचों को हटा रहे हैं। बहुत से बिल्डरों ने बाजार से ब्याज पर पैसे उठा रखे थे। अब बैंक और दीगर एजेंसियां पैसे वापस करने का दबाव डाल रहे हैं। वैसे नोएडा एक्सटेंशन में कुल 13 गांवों की 4,942 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया गया था। इस •ाूखंडों पर करीब 25 बिल्डरों के आवासीय कॉलोनियों के प्रोजेक्ट हैं। 
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 19 जुलाई, 2011 को जो फैसला दिया था, उससे प्र•ाावित होने वाले बिल्डरों की फेहरिस्त यह है।
1. आम्रपाली ग्रुप का लीजर वैली, ला रेजीडेंसिया और सेंचूरियन पार्क 
2. सुपरटेक के इको विलेज वन और इको विलेज टू का अदालत के फैसले के बाद काम ठप है।
3. अरिहंत समूह का अरिहंत प्रोजेक्ट। 
4. इपरोज समूह का इरोज संपूर्णम्।
5. पटेल का नियो टाउन।
6. निराला समूह का निराला इस्टेट।
7. एलीजेंट समूह का एलीजेंट विलेज।
8. वैगमैन समूह का ट्रस्ट वन सिटी प्रजेक्ट •ाी ठप।
9. वेलेंसिया होम्स प्रजेक्ट
1. गायत्री प्रोजेक्ट
19 जुलाई को पटवारी गांव पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले से प्र•ाावित हुई आवासीय परियोजनाएं
निराला डेवलपर्स का निराला इस्टेट।
पटेल डेवलपर्स का नियो टाउन।
अजय इंटरप्राइजेज की परियोजना। 
हवेलिया समूह की वेलेंसिया होम्स।
अरिहंत बिल्डकॉन का अरिहंत आर्डे।
एलीजेंट इंफ्रा का एलीजेंट विला।
सुपरसिटी डेवलपर्स की परियोना। 
सुपरटेक का इको विलेज वन।
पिजन बिल्डकॉन की परियोजना। 
आम्रपाली का लेजर वैली, लेजर पार्क तथा ला रेजिडेंशिया।
(कुल मिलाकर इस फैसले से 2 हजार निवेशकों पर असर पड़ा है।) 
याकूबपुर इलाके के जिन प्रोजेक्ट्स पर पड़ेगा असर 
राधे कृष्णा समूह का कासा ग्रीन।
अजनारा का अजनारा होम्स।
निराला डेवलपर्स का निराला स्पायर।
पंचशील समूह का पंचशील ग्रीन्स—पार्ट 2।
सुपरटेक का इकोविलेज-2। 
रुद्र कंपनी की एक परियोजना। 
आरजी समूह की एक परियोजना। 
आम्रपाली का ड्रीमवैली प्रोजेक्ट

बिसरख गांव के प्र•ाावित प्रोजेक्ट्स 
आम्रपाली का स्प्रिंग प्रोजेक्ट 
अर्थ इंफ्रा का अर्थ टाउन। 
सुपरटेक की इको विलेज-1 परियोजना
पैरामाउंट समूह की पैरामाउंट इमांस 
पंचाील ग्रुप का हाइंस
अर्थकॉन कंस्ट्रक्शंस का संस्कृति
स्टेलर ग्रुप स्टेलर जीवन

शाहबेरी गांव में प्र•ाावित परियोजनाएं 
आम्रपाली का स्मार्ट सिटी
सुपरटेक का इकोविलेज-2
पंचाील ग्रुप का पंचशील ग्रींस
महागुन का मायरा
गुलान होम्स 

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